Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१३२ / गो.सा. जीवकाण्ड
गाथा ८५-८७
कमर
का कथन
उववावे प्रच्चित्तं गब्भे मिस्सं तु होदि सम्मुच्छे | सच्चित्तं श्रच्चित्तं मिस्सं च य होदि जोगी हु ॥१८५॥ |
गाथार्थ - उपपाद जन्म में प्रचित्तयोनि होती है, गर्भजन्म में मिश्रयोनि होती है और सम्मूर्च्छन जन्म में सचित्त, श्रचित्त एवं मिश्र तीनों प्रकार की योनियां होती हैं ।। ६५ ।।
विशेषार्थ -- सम्मूर्च्छन- गर्भ- उपपाद जन्मों में सचित्तादि योनियों का विभाजन इसप्रकार है
उपपादजन्मत्राले देव नारकियों में सम्पुट शय्या व ऊँट मुखाकार आदि उत्पत्ति- बिल-स्थान विवक्षित जीवोत्पत्ति से पूर्व चित्त ही हैं, क्योंकि वे योनियाँ अन्य जीवों से अनाश्रित हैं. अथवा इनके उपपादप्रदेशों के पुद्गल प्रचेतन हैं। उपपादजन्म में सचित्त व मिश्रयोनि नहीं होती । गर्भजन्म में मिश्रयोनि ही होती है, क्योंकि पुरुषशरीर से गलित चित्त शुक्र का स्त्री के सचित्त शोणित के साथ मिश्रण होने से मिश्रयोनि होती है । केवल अचित्त शुक्र के या केवल सचित्त स्त्रीशोरिणत के योनि सम्भव नहीं है । अथवा माता के उदर में अचेतन वीर्य व रज से चेतन आत्मा का मिश्रण होने से मिश्रयोनि है | सम्मूर्च्छन जन्म में सचित, श्रचित्त और मिश्र तीनों ही प्रकार की योनियाँ होती हैं । एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सम्मूर्च्छन जन्मवालों में किन्हीं की घोनियाँ सचित्त होती हैं, किन्हीं की योनियाँ अचित्त होती हैं और किन्हीं की सचित प्रचित्त मिश्र होती हैं । साधारण शरीर वाले निगोदिया सम्मूर्च्छन जीवों के सचित्तयोनि होती है। शेष सम्मुन्छेनों में किसी के अचित्तयोनि और किसी के मिश्रयोनि होती है।' अन्यत्र ( मुलाचार में ) भी उपर्युक्त कथन का विषय एक गाथा के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
उवावे सीदुसणं, सेसे सोदुसरमिस्तयं होदि । उववादेखेसु य संउड वियलेसु विउलं तु ॥ ८६ ॥ गब्भजजीवाणं पुण मिस्सं नियमेण होदि जोणी हु । समुच्छण पंचक वियलं या विउलजोरगी हु ॥८७॥
गायार्थ— उपपादजन्म में शीत और उपरण दो प्रकार की योनियाँ होती हैं। शेष जन्मों में शीत, उष्ण और मिश्र ये तीन ही घोनियां होती हैं । उपपादजन्म वालों की तथा एकेन्द्रियजीवों की योनि संवृत हो होती है, विकलेन्द्रिय जीवों की विवृतयोनि होती है ॥८६॥ गर्भजन्म वालों की संवृतविवृत से मिश्रित मिश्रयोनि होती है। पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन जीवों की विकलेन्द्रियों की तरह विवृतयोनि होती है ॥८७॥
विशेषार्थ - श्री प्रकलंकदेव ने ( राजवार्तिक २/३३, २४-२६ में ) कहा है कि देव, नारकी
१. मं. प्र. टीका एवं राजवार्तिक के आधार से । २. अचित्ता खलु जोशी नेरइयाणं च होइ देवाणं । मिस्सा य गजम्मा तिविहा जोली दु सेसाणं ।। १२ / ५६ ॥ ( पर्याप्त अधिकार ) ।