Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १२२-१२४
पयाप्ति १६३
जाती है। सुख से लालित-पालित हुए तथा दुःखों से रहित विमानवासी देव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले के प्रौदारिकमिश्रकाययोग का काल दीर्घ होता है, क्योंकि मन्दयोग से अल्पपुदगलों को ग्रहण करने वाला है । अथवा योग महान् ही रहा प्रावे और योग के वश से पुद्गल भी बहुत से पाते रहें तो भी उक्तप्रकार के जीव के अपर्याप्तकाल बड़ा ही होता है, क्योंकि विलास से दूषित जीव के शीघ्रतापूर्वक पर्याप्तियों को सम्पूर्ण करने में असमर्थता है।'
विमानवासी देवों में उत्पन्न होने वालों के अपर्याप्तकाल लघु होता है और नरकों में अपर्याप्तकाल बड़ा होता है। एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम ग्रंवेयकों में उत्पन्न हया और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। एक सम्यग्दृष्टि भावलिङ्गी संयत सर्वार्थ सिद्धि विमानबासी देवों में उत्पन्न हया और सर्वलघ अन्तमहर्तकाल से पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ । कोई एक तिर्यञ्च अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न छापा और सबसे बड़े अन्तमुहूर्त काल से पर्याप्तियों को पूर्णता को प्राप्त हुना। कोई एक बद्धनरकायुष्क मनुष्य सम्यक्त्व को प्राप्त होकर दर्शनमोहनीय का क्षपण करके और प्रथमपृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होकर सबसे बड़े अन्त मुहूर्तकाल से पर्याप्तियों को पूर्णता को प्राप्त हुआ। दोनों के जघन्य कालों से दोनों ही उत्कृष्टकाल संख्यातगुणे हैं। लब्ध्यपर्याप्तक का स्वरू
सध्यपर्याप्तक के उत्कृष्टभवों की व एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय सम्बन्धी मवों की संख्या तथा एकेन्द्रिय सम्बन्धी भवों का स्पस्टीवार एस
उदये दु अपुण्यस्स य सगसगपज्जत्तियं रए रिणवदि । अंतोमुहत्तमरणं लद्धि अपज्जागो सो दु ॥१२२॥ "तिण्णिसया छत्तीसा, छावटुिसहस्सगाणि मरणारिण । अंतोमुत्तकाले, तावदिया चेव खुद्दभवा ॥१२३।। सोयी सट्ठी तालं, वियले चउवीस होति पंचक्खे ।
छाट्टि च सहस्सा, सयं च बत्तीसमेयवखे ॥१२४।। १. एक्को सम्मादिट्ठी बाबीससागरोवमाणि दुक्खैक्करसों होदूण जीविदो । छट्ठीदो उन्चट्टिय मामे मु उप्पण्णो ....."परमाणुपोग्गलबहुला प्रागच्छति, तम्स जोगबहुत्तदमरणादो । एम्स जहणिया ओरालियमिस्सकायजोगस्स श्रद्धा होदि । (घ. पु. ४ पृ. ४२२) २. सम्बट्टसिद्धिविमाणवासियदेवस्स तेत्तीससागरोबमाणि सुहृलालियस्स पमुट्ठदुक्खस्स माणुसगम्भे उम्पण्णस्स, तस्थ मंदो जोगो होदि ति पाइरियपरंपरागभुवदेसा । मंदजोगेश थोवे पोग्गले गेण्हंतस्स पोरालियामम्सद्धा दोहा होदि ति उत्त होदि । अधवा जोगो एत्य महल्लो चेव हो जोगवसेण बहुप्रा पोग्गला आगच्नु, तो बि एदस्स दोहा अपज्जतद्धा होदि, विलिसाए दूसियम्स लहूं पज्जत्तिसमागणे असामत्थियादो। [.पु. ४ पृ. ४२३] । ३. एकको दवलिंगी उबरिमगेवेज्जेसु उन्धपणो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पत्ति गदो। सम्मादिट्टी एकको संजदो सत्यदेवेम् उपवणो, सव्वलहुमंतो मुहुनेग पज्जति गदो। (घ.पु. ४ पृ. ४२८) । ४. "एकको तिरिकालो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी सत्तमपुढविगैरइएसु उबवणो सचिरेगा अतोमुहुत्तेण पन्जसि गदो। एकको बद्धरिणरयाउनो सम्मन पडिवज्जिय दंसणमोहणीयं खविय पढमपुढविणे रइरसु उपज्जिय सव्यचिरेरण अंतोमुहुत्तेण पज्जत्ति गदो। दोण्हं जहणकाले हितो उक्कस्सकाला दो वि सं जगुणा । (प.पु. ४ पृ. ४२६)। ५. घ.पु. ४ पृ. ३६५ ।