Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माथा १२७
पर्माप्ति/११
तो इस प्रकार है कि - माहारक शरीर को उत्पन्न करने वाला प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती साधु प्रोदारिकशरीरगत छह पर्याप्तियों की अपेक्षा पर्याप्तक भले ही रहा प्रावे, किन्तु पाहारकशरीर सम्बन्धी पर्याप्ति के पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह साधु अपर्याप्तक है।
शङ्का-पर्याप्त और अपर्याप्तपना एक जीत्र में एक साथ सम्भव नहीं है, क्योंकि एक साथ एक जीब में इन दोनों के रहने में विरोध पाता है।
समाधान--नहीं, क्योंकि एकसाथ एक जीव में पर्याप्त और अपर्याप्त सम्बन्धी योग सम्भव नहीं हैं. यह बात इष्ट ही है ।
शङ्का-तो फिर पूर्व शंका का कथन क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि समाधान के कथन में विरोध आता है ?
समाधान -नहीं, क्योंकि भूतपूर्व नय की अपेक्षा विरोध प्रसिद्ध है। अर्थात् औदारिकशरीर सम्बन्धी परितपने की अपेक्षा आहारकमिश्न अवस्था में भी पर्याप्तपने का व्यवहार किया जा सकता है । अथवा द्रव्यार्थिकनय के अवलम्बन की अपेक्षा आहारकशरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी पर्याप्त कहा है।
शङ्का--उस द्रध्याथिकनय का दूसरी जगह अबलम्बन क्यों नहीं लिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर द्रव्याथिकनय के अवलम्बन के निमित्त नहीं पाये जाते । शङ्का- तो फिर यहाँ द्रव्याथिकनय का अवलम्बन किसलिए लिया जाता है ?
समाधान --माहारक.शरीर सम्बन्धी अपर्याप्तावस्था को प्राप्त हए प्रमत्तसंयत की पर्याप्त के साथ समानता दिखाना ही यहाँ पर द्रव्यार्थिवनय के अवलम्बन का कारण है।
शङ्का--जिसके प्रौदारिकशरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियां नष्ट हो चुकी हैं और अाहारकशरीर सम्बन्धी पर्याप्तियां अभी तक पूर्ण नहीं हुई हैं ऐसे अपर्याप्तक प्रमत्तसंयत के संयम कैसे हो सकता है ? और दूसरे पर्याप्तकों के साथ किस कारण से समानता हो सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जिसका लक्षण ग्रानव का विरोध करना है, ऐसे संयम का मन्दयोग अर्थात पाहारकमिश्च योग के साथ होने में कोई विरोध नहीं पाता है। यदि इस मंदयोग के साथ संयम के होने में विरोध पाता है तो समुद्घात को प्राप्त हुए केवली के भी संयम नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ भी अपर्याप्तसम्बन्धी योग का सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई बिशेषता नहीं है। दुःखाभाव की अपेक्षा इसकी दुसरे पर्याप्तकों के साथ समानता है । जिसप्रकार उपपादजन्म, गर्भजन्म या सम्मूच्र्छन जन्म से उत्पन्न हुए शरीरों को धारण करने वालों को दुःख होता है, उस प्रकार पाहारकशरीर को धारण करने वालों के दुःख नहीं होता है, इसलिए उस अवस्था में प्रमत्तसंयत पर्याप्त है। इसप्रकार का उपचार किया जाता है, या दुःख के बिना ही पूर्व प्रौदारिकपारीर का
१. भ. पु. १ पृ. ३१८ । २. प. पु. १ पृ. ३३० । ३. प. पु. १ पृ. ३१ । ४. प. पु. १ सूत्र ७८ की टीका ।