Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१५६ गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२८
'भावयेद" तो मनुष्यगति का विशेषण है । नवम गुणस्थान तक तो भाववेद सहित मनुष्यगति का सद्भाव रहता है फिर नवम गुणस्थान के ऊपर दसवें आदि गुरास्थानों में भाववेद रूप विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी मनुष्यगति तो बनी रहती है। इसीलिए उस मनुष्यगति की प्रधानता से, भाववेद (स्त्री प्रादि) के नष्ट हो जाने पर भी उस साथ रहने वाली विशेष्यरूष मनुष्यगति के सद्भाव में उपचार से भाववेद (स्त्री प्रादि) की अपेक्षा भी १४ गुणस्थान कहे गए हैं।
इसका खुलासा लेश्या के दृष्टान्त से समझ लेना चाहिए। शास्त्रकारों ने १३ वें गुणस्थान लकलेश्या बताई।परन्तलेश्या तो कषायों के उदय सहित योगप्रवत्ति में होती है।[कषायानरंजितयोगप्रवृत्तिः लेश्या इति परन्तु लेश्या में योग (विणेध्य) की प्रधानता होने से, तेरहवे गुणस्थान में कषाय (विशेषण) के नष्ट हो जाने पर भी साथी योग (विशेष्य) की विद्यमानता मात्र देखकर वहाँ लेश्या कह दी है । वैसे ही यहाँ भी वेद (विशेषण) के नष्ट हो जाने पर भी विशेष्यरूप मनुष्यगति के सद्भाव को देखकर १४ वें गुणस्थान तक वेद कहा है।
देव मिथ्याष्टि, सासाब नसम्यग्दृष्टि और असंपतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपयाप्त भी होते हैं ।' सम्यग्मिथ्यावृष्टिगुणस्थान में नियम से पर्याप्त होते हैं ।
शङ्का-विग्रहगति में कामगाणारीरवाले के पर्याप्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि विग्रहगति काल में छह पर्याप्तियों की निष्पत्ति नहीं होती । उसीप्रकार विग्रहगति में वे अपति भी नहीं हो सकते, क्योंकि पर्याप्तियों के प्रारम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्य की अवस्था में 'अपर्याप्त' यह संज्ञा दी गई है, किन्तु जिन्होंने पर्याप्तियों का प्रारम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रहगति सम्बन्धी एक, दो या तीन समयवर्ती जीवों के अपर्याप्त संज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती, क्योंकि ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष आता है । इसलिए विग्रहाति में पर्याप्त और पर्याप्त से भिन्न कोई तीसरी अवस्था कहनी चाहिए।
___ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विग्रहगति को प्राप्त जीवों का अपर्याप्तों में ही अन्तर्भाव किया गया है और ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं पाता, क्योंकि कार्मरणशरीर में स्थित जीवों की अपर्याप्तकों के साथ सामर्थ्याभाव, उपपादयोगस्थान, एकान्तवृद्धियोगस्थान और गति तथा प्रायुसम्बन्धी प्रथम, द्वितीय, तृतीयसमय में होने वाली अवस्था के द्वारा जितनी समीपता पायी जाती है उतनी शेष प्राणियों की नहीं पाई जाती । इसलिए कामण काययोग में स्थितजीवों का अपर्याप्तकों में ही अन्तर्भाव किया जाता है । अतः सम्पूर्ण प्राणियों की दो ही अवस्थाएँ होती हैं, इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती।'
शङ्का-सम्यग्मिथ्याष्टिजीव पर्याप्तक ही होते हैं, यह क्यों ?
समाधान-क्योंकि तीसरे गुणस्थान के साथ मरण नहीं होता तथा अपर्याप्तकाल में भी सम्याग्मिथ्यात्वगुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती।
१. ' देवा मिच्छ इटि-सापण तम्माइडि-प्रसं जदसम्माइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ॥४॥" (ध.पु. १ पृ. ३३४) । २. "सम्मामिच्छा इटिठ-टाणे णियमा पज्जत्ता ॥६५॥"(प.पु. १ वृ. ३३५.)। ३. प.पु. १ पृ. ३३४१ ४. व. पु. १ पृ. ३३४ ॥