Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१७४/गो. सा. जीव कापड
गाथा १२८
शङ्का-जिन्होंने दान नहीं दिया है ऐसे जीव भोगभूमि में कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ?
समाधान --नहीं, क्योंकि भोगभूमि में उत्पत्ति का कारण सम्पग्दर्शन है और वह जिनके पाया जाता है उनके वहाँ उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं आता है तथा पात्रदान की अनुमोदना से रहित जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो नहीं सकते, क्योंकि उनमें पात्रदान का प्रभाव नहीं बन सकता है।'
क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति मनुष्य काम में ही होती है। अतः हिसा मनुष्य ने पहले तिर्यंचायु का बन्ध कर लिया है और अनन्तर उसके क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुया है, ऐसे जीव के उत्तम भोगभूमि में उत्पत्ति का मुख्य कारण क्षायिक सम्यग्दर्शन ही जानना चाहिए, पात्रदान नहीं। फिर भी वह पात्रदान की अनुमोदना से रहित नहीं होता है।
पंचेन्द्रियतिर्य चिनी मिथ्यादृष्टि और सासादनगुरणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतगुणस्थानों में नियम से पर्याप्त होते
शङ्का-जिस प्रकार बद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव नारकसम्बन्धी नपुसकवेद में उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तियेच स्त्रीवेद में क्यों नहीं उत्पन्न होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि नरक में एक नपुसकवेद का ही सद्भाव है। जिस किसी गति में उत्पन्न होने वाला सम्यग्दृष्टिजीव उस गति सम्बन्धी विशिष्ट वेदादिक में ही उत्पन्न होता है इससे यह सिद्ध हुया कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यचिनी में उत्पन्न नहीं होता।
मनप्य मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भो होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं। 'सम्यग्मिथ्याष्टि, संयतासंयत और संपतगुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं। इसी प्रकार यानी मनुष्य सामान्य के कथन के समान मनुष्यपर्याप्त होते हैं ।
शङ्का-जिसके शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है उसको पर्याप्त कैसे कहा जाय ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा उसके भी पर्याप्तपना बन जाता है । भात पक रहा है. यहाँ पर जिस प्रकार चावलों को भात कहा जाता है, उसी प्रकार जिसके सभी पर्याप्तियां पर्ण होने वाली हैं ऐसे जीव के अपर्याप्तावस्था में भी पर्याप्तपने का व्यवहार विरोध को प्राप्त नहीं होता है अथवा पर्याप्ननामकर्म के उदय की अपेक्षा उसके पर्याप्तपना समझ लेना चाहिए।'
मनुष्यिनियों में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतगुणस्थानों में .
१. घ. पु. १ पृ. ३२७ । २. पंचिदियतिरिक्ख-जोरिणगीसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइठिट्टाणे मिया पज्जनियामो सिया अप्पज्जत्तियाग्रो ॥७॥ सम्मामिच्छाइटिठन्यसंजदसम्माइदिठ-संजदासंजद-ठाणे णियमाएज्जत्तिया यो ॥८८||"प.पु. १ पृ. ३२८ । ३. "मणुस्सा मिच्चाइट्ठि-सासरणसम्माइदिव-प्रसंजदसम्माइट्ठि ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।।१६।।"(प.पु. १ पृ. ३२६) ४ सम्मामिलाइटि-संजदासजद-संजदहारणे गियमा पज्जता ||६०1" (व.पु. १ पृ. ३२६) । ५. एवं मणुस्स-पज्जत्ता ||६॥ प.पु १/३३१ । ६. ध.पु. १ पृ. ३३१ ।