Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१६८/गो. सा. जीयकाण्ड
माथा १२६ समाधान नहीं, क्योंकि वर्षपृथक्त्व के अन्तराल का प्रतिपादन करने वाले सूत्र के वशवों प्राचार्यों का ही पूर्वोक्त कथन से विरोध पाता है ।
शा-छह मासप्रमाण आयुकर्म के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हया है, वह समुद्घात करके ही मुक्त होता है, घोष जीव करते भी हैं और नहीं भी करते हैं। कहा भी है
छम्मासाउवसेसे उत्पण्णं जस्स केवलं गाणं ।
स-समुग्यानो सिजभइ सेसा भज्जा समुग्घाए ॥१६७॥ इस गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इसप्रकार का विकल्प मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का अर्थ ग्रहण नहीं किया है। शङ्का--जेसि आउ-समाई णामा गोवाणि वेयरणीयं च ।
से अकय समुग्घाया वध्वंतियरे समुग्धाए ॥१६८।। अर्थात् जिन जीवों के नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म की स्थिति आयुकम के समान होती है, वे समुद्घात नहीं करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं, दूसरे जीव समुद्घात करके ही मुक्त होते हैं।
समाधान—इसप्रकार पूर्वोक्त गाथा (१६८) में कहे गये अभिप्राय को तो किन्हीं केबलियों के समुद्घात होने में और किन्हीं के समुद्घात नहीं होने में कारण कहा नहीं जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण केबलियों में समान अनिवृत्तिरूप परिणामों के द्वारा कर्मस्थितियों का घात पाया जाता है। प्रतः उनका (वेदनीय-नाम-गोत्रकर्म स्थिति का) आयु के समान होने में विरोध प्राता है। दूसरे क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में तीन अघातियाकर्मों की जघन्यस्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सभी जीवों के पायी जाती है। इसलिए पूर्वोक्त कथन ठीक प्रतीत नहीं होता।
शङ्का-पागम तो तर्क का विषय नहीं है, इसलिए इस प्रकार तर्क के बल से पूर्वोक्त गाथानों के अभिप्राय का खण्डन करना उचित नहीं है।
समाधान--नहीं, क्योंकि इन दोनों गाथानों का आगमरूप से निर्णय नहीं हुआ है । अथवा यदि इन दोनों गाथाओं का आगमरूप से निर्णय हो जाए तो इनका ही ग्रहण रहा भावे ।
शङ्का-कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त ?
समाधान--उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सवाता, क्योंकि "ौदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है ।" इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है।
शङ्का-सम्यग्मिथ्याष्टि, संयतासंयत और संयत मुणस्थानों में जीव नियम से पर्याप्तक होते
१. वसुनन्दिश्रावकाचार गा. ५३० । २. प. पु. १ पृ. ३०१ से ३०४। ३. "पोरालियमिस्सका यजोगो अपज्जत्ताणं" घ. पु. १ पृ. ३१५ सूत्र ७६ व गो. जी. का. गा, ६८ ।