Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१६४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १२५
पुढविदगागणिमारद ---साहारणथल - सुहमपत्तेया।
एवेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के बार खं छक्कं ॥१२॥ गाथार्थ-अपर्याप्त नामकर्म-उदय के कारण अपनी-अपनी पर्याप्तियों को निष्ठापित (पूर्ण) न करके अन्तर्मुहूर्त काल में मरण को प्राप्त हो जाते हैं, वे लब्ध्यपर्याप्तक हैं ॥१२२।। अन्तर्मुहूर्तकाल में लब्ध्यपर्याप्तक जीव ६६३३६ बर मरण को प्राप्त होता है, इतने ही क्षुद्रभव होते हैं ।।१२३॥ विकलेन्द्रियों के ८०-६० व ४० भव और पंचेन्द्रियों के २४ भव तथा एकेन्द्रियों के ६६१३२ भव होते हैं ।।१२४।। बादर व सूक्ष्मपृथ्वी-जल-अग्नि-बायु और साधारण वनस्पति ये दस तथा एक प्रत्येक वनस्पति इन ११ लब्ध्यपप्तिकों में से प्रत्येक के ६०१२ भव होते हैं ।।१२।।
विशेषार्थ--स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा १३७ में लब्ध्यपर्याप्तक का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है
उस्सासद्वारसमे भागे जो मरदि ए य समाणेवि ।
एक्को वि य पजसी लद्धि-अपुण्णो हवे सो छ । अर्थात् जो जीव श्वास नाही) के अठारहवें भाग में मर जाता है और एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता है वह लब्धिअपर्याप्तक जीव है। गो.जी.गा. १२२ में 'अन्तमुहूर्त' से अभिप्राय नाड़ी के अठारहवें भाग से है, क्योंकि 'अन्तर्मुहूर्त' के बहुत भेद हैं। एक मिनट में लगभग ८० नाड़ी होती है और ६० सेकण्ड होते हैं अतः एक नाड़ी का इ सेकण्ड अर्थात् । सेकण्ड होता है। सेकण्ड का अठारहाभाग अर्थात् ३४ एक सेकण्ड के २४वें भाग प्रमाण लब्ध्यपर्याप्तक की आयु होती है। लब्ध्यपर्याप्तक के एक भव को क्षद्रभव भी कहते हैं। एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव चारों पर्याप्तियों में से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता। द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव पाँचों पर्याप्तियों में से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तक के छहों पर्याप्तियों में से एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती। अपनी पर्याप्ति निष्ठापन की योग्यता जिसकी अनिष्पन्न हो यह लब्ध्यपर्याप्तक का निरुक्ति अर्थ है ।'
नीरोग, स्वस्थ सुखिया मनुष्य के एक मुहूर्त में ३७७३ श्वास (नाड़ी) होते हैं । कहा भी है
पाढयानलसानुपहतमनुजोच्छ्वासैस्त्रिसप्तसप्तत्रिमितेः ।
पाहुमुहूर्तमंतमुहूर्तमष्टाष्टजितस्विभागयुतैः ॥ अर्थात् धनवान, आलसरहित नीरोग मनुष्य के एक मुहूर्त (४८ मिनट) में ३७७३ उच्छ्वास होते हैं। इन ३७७३ उच्छ्वासों में से ८८ उच्छ्वास कम करके उच्छ्वास का त्रिभाग मिला देने से अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण (३७७३-८८=)३६८५ उच्छ्वास; - उच्छ्वास = ३६८५ उत्तछ्वास कहा गया है।
१. लब्ध्या स्वस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पना: लजयपर्याप्सा इति निरुक्तेः । स्वा.का. अ. मा. १३७ की टीका २. गो. जी. का. गा. १२५ की दीका से उ त।