Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १२०
पर्याप्ति/१६१
चार पर्याप्तियाँ और चार अपर्याप्तियां होती हैं। वे चार पर्याप्तियाँ आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और पानपान पर्याप्ति हैं। किन्हीं जीवों में चार पर्याप्तियों अथवा किन्हीं में चार अपर्याप्तियाँ होती हैं । ये चारों पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के ही होती हैं, दूसरों के नहीं।
शङ्का-एकेन्द्रिय जीवों के उच्छवास तो नहीं पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियजीवों के श्वासोच्छ्वास होता है, यह बात आगमप्रमाण से जानी जाती है।
शङ्का प्रत्यक्ष से यह पागम बाधित है ? ___ समाधान-जिसने सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष कर लिया है, ऐसे प्रत्यक्षप्रमाण से यदि बाधा सम्भव हो तो वह प्रत्यक्षबाधा कही जा सकती है, किन्तु इन्द्रियप्रत्यक्ष तो सम्पूर्ण पदार्थों को विषय नहीं करता है, जिससे कि इन्द्रियप्रत्यक्ष की विषयता को नहीं प्राप्त होने वाले पदार्थों में भेद किया जा सके ।
शङ्खा–छह पर्यापित, पाँच पर्याप्ति अथवा चार पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त हुए पर्याप्तक कहलाते हैं । तो क्या उनमें से किसी एक पर्याप्ति से पूर्णता को प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है या सम्पूर्ण पर्याप्तियों से पूर्णता को प्राप्त हुमा पर्याप्तक कहलाता है ? समाधान--सभी जीव शरीरपर्याप्ति के निष्पन्न होने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं ।
प्रत्येक व समस्त पर्याप्तियों के प्रारम्भ व पूर्ण होने का काल पज्जत्ती पट्ठवणं जुगवं तु कमेण होवि गिट्ठवणं ।
अंतोमुत्तकालेपहियकमा तत्तियालाया ।।१२०॥ गाथार्थ--पर्याप्तियों का प्रस्थापन युगपत् होता है, किन्तु निष्ठापन क्रम से होता है। इन पर्याप्तियों का काल' अधिक-अधिक क्रमबाला होने पर भी अन्तर्मुहूर्तवाला है ॥१२०।।
विशेषार्थ इन छहों पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्मसमय से लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है, किन्तु पूर्णता क्रम से होती है। प्रथम अन्तर्मुहूर्त के द्वारा प्राहार पर्याप्ति की निष्पत्ति होती है । उसके संख्यातवेंभाग अधिक काल के द्वारा शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति होती है। अर्थात् जन्मसमय से जितना काल पाहारपर्याप्ति निष्पन्न होने में लगता है उसका संख्याताभाग अधिक काल शरीरपर्याप्ति निष्पन्न होने में लगता है। जितना काल शरीर पर्याप्ति को निष्पत्ति में लगता है उसका संख्यातवाँभाग अधिक काल इन्द्रियपर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है और उसका संख्याताभाग अधिक काल पानपान पर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है। उसका भी संख्यातवाँभाग अधिककाल भाषापर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है। उससे भी उसका संख्याताभाग अधिककाल मनःपर्याप्ति की निष्पत्ति में लगता है।
१. प. पु. १ पृ. ३१४.३१५ ॥२. प. पु. १ पृ. ३१५-३१६। ३. एतासां प्रारम्भोऽक्रमणे जन्मसमयादारम्य तासां सस्वाभ्युपगमात् । निष्पत्ति तु पुन: क्रमेण । घ. पु. १ पृ. २५५-२५६ । ४. सिद्धान्तरकवर्ती श्रीमद् अभयचन्द्रसूरि कृत टीका के प्राधार पर ।