Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १११
पर्याप्ति १५६ सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि प्राचार्यकृत मूलाचार टोका के अनुसार भी पर्याप्तियों का स्वरूप द्रष्टव्य है, अतः उसे भी यहाँ दिया जा रहा है
पाहारपर्याप्ति- प्रौदारिक, वक्रियिक और प्राहारक इन तीन शरीर के योग्य प्राहारवर्गणा को पाराकर इनका तुलनामा रु. परिणामन करने में जिस कारण के द्वारा जीव समर्थ होता है, ऐसे कारण की सम्पूर्णता प्राप्त होना आहारपर्याप्ति है।
शरीरपर्याप्ति-शरीर बनने योग्य पुद्गल द्रव्य को ग्रहणकर जिस कारण से औदारिक, वैक्रियिक और पाहारक शरीररूप परिणमाने में जीव समर्थ होता है, ऐसे कारण की सम्पूर्णता प्राप्त होना शरीरपर्याप्ति है।
इन्द्रियपर्याप्ति--एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के योग्य पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण कर जिस कारण से यह प्रात्मा स्वकीय स्वकीय स्पर्शादि इन्द्रियविषयों को जानने में समर्थ होता है, ऐसे कारण की पूर्णता प्राप्त होना इन्द्रियपर्याप्ति है।
प्रानपानपर्याप्ति-श्वासोच्छवास के योग्य पुद्गलद्रव्यों का अवलम्बन लेकर जिस कारण से श्वासोच्छ्वास की रचना को यह प्रात्मा करता है, उस कारण की पूर्णता को प्रानपानपर्याप्ति कहते हैं।
भाषापर्याप्ति - चार प्रकार की भाषा के प्रायोग्य पुद्गलद्रव्य को प्राश्रय करके जिस कारण धार भाषारूप परिणमाने में यह आत्मा समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता भाषापर्याप्ति है।
मनःपर्याप्ति--चार प्रकार के मन के योग्य पुद्गलद्रव्य का आश्रय करके जिस कारण से चारप्रकार की मनःपर्याप्तिरूप रचना करने में आत्मा समर्थ होता है, उस कारण की सम्पूर्णता मनःपर्याप्ति है।'
उपर्युक्त छहों पर्याप्तियां संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती हैं। शङ्का--क्या सम्यग्मिथ्याष्टिगुणस्थान वाले के भी छह पर्याप्तियाँ होती हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि इस गुणस्थान में अपर्याप्तकाल नहीं पाया जाता है 1 शरदेशविरतादि ऊपर के गुणस्थानबालों के छहपर्याप्तियां क्यों नहीं होती ?
समाधान नहीं, क्योंकि छह पर्याप्तियों की समाप्ति [-पूर्णता] का नाम ही पर्याप्ति है और यह समाप्ति चतुर्थ गुरणस्थान तक ही होने से पंचमादि ऊपर के गुणस्थानों में नहीं पायी जाती, क्योंकि अपर्याप्ति की अन्तिम अवस्थावर्ती एकसमय में पूर्ण हो जाने वाली पर्याप्ति का आगे के गुणस्थानों में सत्त्व मानने से विरोध आता है।'
पाँच पर्याप्तियो और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं ।
१. मूलाधार भाग दो, पृ. १७६ पर्याप्ति अधिकार १२ गाथा ४ की टीका।
२. घ.पु. १ पृ. ३१२ ।