Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ११६
पर्याप्ति/१५७
और मनरूप शक्तियों की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं। इन शक्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं। इस पर्याप्ति और अपर्याप्ति के भेद से जीव भी दो प्रकार के हो जाते हैं। पर्याप्तजीव और अपर्याप्तजीव । पर्याप्त नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई शक्ति से जिन जीवों की अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने रूप अवस्था विशेष प्रगट हो गई है, उन्हें पर्याप्तजीव कहते हैं । अपर्याप्त नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई शक्ति से जिन जीवों की शरीरपर्याप्ति पूर्ण न करके मरनेरूप अवस्था विशेष उत्पन्न हो जाती है उन्हें अपर्याप्सजीव कहते हैं। सभी जीव शरीर पर्याप्ति के निष्पन्न होने पर पर्याप्त कहे जाते हैं । जिन जीवों की पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है, किन्तु पर्याप्त नामकर्म का उदय है वे जीव भी पर्याप्त कहलाते हैं, क्योंकि भविष्य में उनकी पर्याप्ति नियम से पूर्ण होगी । होने वाले कार्य में यह कार्य हो गया इस प्रकार उपचार कर लेने से इनकी पर्याप्त संज्ञा करने में कोई विरोध नहीं पाता । अथवा पर्याप्त नामकर्मोदय से पयप्ति संज्ञा दी गई है 14
पर्याप्तियों के भेद तथा उनके स्वामी "पाहारसरीरिविय--पज्जत्ती प्राणपारणभासमरणो ।
चत्तारि पंच छप्पि य, एईविय-वियलसारणीणं ॥११॥ गाथार्थ - आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति. इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति । एकेन्द्रियजीवों के इनमें से पहली चार पर्याप्तियां होती हैं। विकलचतुष्क के पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं । संजी जीवों के छह पर्याप्तियों होती हैं ।।११६।।
विशेषार्थ—सामान्य की अपेक्षा पर्याप्तियाँ छह हैं । आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, प्रवासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति, मनः पर्याप्ति । पर्याप्तियाँ छह ही होती हैं इससे अधिक नहीं।
आहारपर्याप्ति--- शरीर नामकर्म के उदय से जो परस्पर अनन्त परमाणुओं के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए हैं और जो पात्मा से व्याप्त प्रकाशक्षेत्र में स्थित हैं ऐसे पुद्गलविपाकी आहारवर्गरणा सम्बन्धी पदगलस्कन्ध कर्म स्कन्ध के सम्बन्ध से कथंचित् मूर्तपने को प्राप्त हुए आत्मा के साथ समवायरूप से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं। उन पुद्गलस्कन्धों को खल भाग और रसभाग के भेद से परिणामाने रूप प्रात्म शक्ति की पूर्णता को आहारपर्याप्ति कहते हैं ।'
१. आहारशरोरेन्द्रियानापानभाषामन, शक्तीनां निष्पत्तेः कारणं पर्याप्तिः। (व. पु. १ पृ. २५६ व प. पु. ३ परिशिष्ट पृ. २३) २. शक्तिनामर्घनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः ! (ध. पु. १ पृ. २५७)। ३-४. 'पर्याप्तनामकर्मोदय जनितशक्त्याविर्भाबितवृत्तयः पर्याप्ताः । अपर्याप्तमामकर्मोदयअनितशक्त्याविर्भावितवृत्तयः अपर्याप्ताः । (ध. पु. १ पृ. २६७) । ५. शरीरपर्याप्त्या निष्पन्न : पर्याप्त इति मण्यते । (प. पु. १ पृ. ३१५-१६) । ६. प. पु. १ पृ. २५४ । ७. यह गाथा प्रा. पं. सं. पृ. १० पर गा. ४४ है, किन्तु पृ. ५७३ गा. २६ में 'वियलमणशीणं' के स्थान पर 'विकलऽसपिणासपोरणं' पार है। व. पु. २ पृ. ४१७ पर भी यह गाथा है, किन्तु 'छप्पि' के स्थान पर 'छवि' तथा 'वियल' के स्थान पर 'विगल' पाठ है। मुलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गा. ४ व ५ में भी इस गाथा का विषय प्रतिपादित है। -६. घ. पु. १ पृ. २५४ व पु. ३ परिशिष्ट पृ.३० ।