Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१५६/गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा ११८ उत्तरोत्तर प्रकृतिविशेषों के उदय से जो वंशों की उत्पत्ति होती है, वे ही कुल हैं । मूलाचार की टीकानुसार "शरीर के कारण मन क वर्षणा के पद को कुल कहते हैं।"
शंका-कुल और योनि में क्या अन्तर है ?
समाधान-जाति के भेदों को कुल कहते हैं और जीवों की उत्पत्ति के कारण (जिसमें से जीवों की उत्पत्ति होती है) प्राधार स्थान को योनि कहते हैं। जैसे-बड़, पीपल, कृमि, सीप, चौंटी भ्रमर, मक्खी, गौ, घोड़ा इत्यादि, नथा क्षत्रियादि कुल हैं । कंद, मूल, अण्डा, गर्भ, रस, स्वेदादि योनि हैं।'
शङ्का-कुल, योनि, मार्गणादि के ज्ञान से क्या लाभ है ?
समाधान-कुल , योनि, मार्गरण के आश्रय से सर्वजीवों का स्वरूप जानकर अपनी श्रद्धा को नि:शंक अर्थात् संशयरहित करना चाहिए। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी मूलाचार में कहा है
"फल जोणिमगरणा वि य रणावरवा चेव सग्यजीवाणं । रणाऊण सम्व जीवे रिगस्संका होवि कावया ॥३७॥"
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में जीवसमासप्ररूपणा नामक द्वितीय अधिकार पूर्ण हुना।
३. पर्याप्ति-प्ररूपणाधिकार
पर्याप्ति व अपर्याप्ति का लक्षण तथा जीव के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद 'जह पुण्णापुण्णाई, गिहघडवस्थावियाई दवाई।
तह पुण्णिदरा जीवा, पज्जत्तिदरा मुणेयच्या ॥११॥ गाथार्थ-जिस प्रकार गृह, घट और वस्त्र प्रादि अचेतन द्रव्य पुर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दो प्रकार के होते हैं। पूर्णजीव पर्याप्तक और अपूर्णजीव अपर्याप्तक कहलाते हैं ॥११८।।
विशेषार्थ-सम्पूर्णता के हेतु को पर्याप्ति कहते हैं। प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, पानपान, भाषा
१. मूलाचार टीका के प्राधार से । २. यह गाथा घ. पु. २ पृ. ४१७ पर है। प्रा. पं. सं. पृ. २ प्र. १ गा, ४३ भी है, किन्तु वहाँ 'पुण्दिरा जीवा पत्तिदरा' के स्थान पर 'पुण्णापुण्यानो पन्जत्तियरा' पाठ है। ३. 'पज्जती'-पर्याप्तयः सम्पूर्णताहेतवः (मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२. गा. ४. की टीका) ।