Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पाषा ११३-११७
जीवसमास/१५५
कुलों के द्वारा जीवसमासों का कथन 'बावीस सत्त तिपिप य, सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई ।
या पुढविदगागरिण, बाउक्कायाण परिसंखा ॥११३॥ कोडिसयसहस्साई, सत्त? रणय य अहवीसाई । बेइंदिय सेइंगिय, चरिदिय हरिदकायाणं ॥११४॥ प्रयत्तेरस बारस, वसयं कुलकोडिसदसहस्साई । जलचर-पक्खि--चउप्पयउरपरिसप्पेसु रणव होति ।।११५॥ छप्पंचाधियवीस, बारसकुलकोडिसदसहस्साई । सुरणेरइयणराणं, जहाकम होंति णेयाणि ॥११६।। एया य कोडिकोडी सत्ताउदो य सदसहस्साई ।
पणं कोडिसहस्सा, सव्वंगीणं कुलाणं य ॥११॥ गाथार्थ-पृथ्वीकायिक की २२ लाख, जलकायिक सी १७ लाख, अग्निकायिक की ३ लाख और वायुकायिक की ७ लाख कुलकोटि है ।।११३।। द्वीन्द्रियों की ७ लाख, श्रीन्द्रियों की प्राठ लाख, । चतुरिन्द्रियों को ६ लाख वनस्पतिकायिकों की २८ लास्त्र कुलकोटि है ।।११४॥ जलचरों की साढ़े । बारह लाख कुलकोटि, पक्षियों की बारह लाख कुलकोटि, चतुष्पद पशुओं की १० लाख कुलकोटि, परिसपों (छाती के सहारे चलने वालों) की हलाख कुलकोटि है ।।११।। देवों की २६ लाख, नारकियों की २५ लाख और मनुष्यों की १२ लाख कुलकोटि ज्ञातव्य है ॥११६।। सर्व जीवों के कुलों की संख्या एक कोडाकोड़ो सत्तानवे लाख पचास हजार कोटि है ॥११७॥
विशेषार्य--उक्त पाँच गाथाएँ मूलाचार के पंचाचार अधिकार तथा पर्याप्ति अधिकार में भी पाई हैं। उनमें मनुष्यों की १४ लाख कुलकोटि कहीं है और सर्वजीवों की एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख कुलकोटि है । किन्तु गोम्मटसार व प्राचारसार में मनुष्यों की १२ लाख कुलकोटि कही है और सब जीवों की १६७३ लाख कुलकोटि कही है । इस समय श्रुतकेवली का अभाव है, अतः यह निर्णय नहीं हो सकता कि इन दोनों में से किस संख्या को ग्रहण करना चाहिए ।
शङ्का-कुल किसे कहते हैं ?
समाधान–सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री अभयचन्द्र सूरि ने मन्दप्रबोधिनी टीका में-- "उच्चर्गोत्रनीचर्गोत्रयोः उत्तरोत्तरप्रकृतिविशेषोदय: संजाताः वंशाः कुलानि" अर्थात् ऊँच और नीचगोत्र रूप
१. गा. १९३ से ११७ ये पाँच गाथाएं मारिणकचन्द्र ग्रन्थमाला से एवं फलटन से प्रकाशित मूलाचार के क्रमशः १. २८५ (द्वितीय भाग, मा. १६६-१६६ और पृ. १३१-१३२ गा २६ से ३३ तक सदृशता लिये हुए हैं किन्तु मनुष्यों की कुलकोटि उक्त अन्यों में १४ लाख बतायी है। प्राचारसार भ. ११६ श्लोक ४२-४५ में भी यही कथन पाया जाता है।