Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६४
जीवसमास/१३७
सर्वजघन्य और सर्वोत्कृष्ट अवगाहना के स्वामी 'सुहमणिगोव-अपज्जत्तपस्स जादस्स सदियसमयम्हि । मंगुलप्रसंखभागं जहरणमुक्कस्सयं मच्छे ॥४॥
गाथार्थ-उत्पन्न होने के तीसरे समय में सूक्ष्म निगादिया-लब्ध्यपयाप्तक की अङ्ग ल के प्रसंख्यातव भाग प्रमाण जघन्य शरीर अवगाहना होती है और उत्कृष्ट शरीर अवगाहना मत्स्य की होती है ||१४||
विशेषार्थ-अन्यतर सूक्ष्मनियोद जीव लब्ध्यपर्याप्तक जो कि त्रिसमयवर्ती पाहारक है, जभवस्थ होने के तृतीयसमय में वर्तमान है, जघन्य योगवाला है और शरीर की सर्वजघन्य अवगाहना में वर्तमान है। उसके शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। पर्याप्त का निराकरण करने के लिए 'अपर्याप्त के' ऐसा निर्देश किया गया है।
शङ्का–पर्याप्त का निराकरण किसलिए किया गया है ? ___ समाधान... अपर्याप्त की जघन्य अवगाहना से पर्याप्त को जघन्य अवगाहना बहुत पाई जाती है, अत: उसका निषेध किया गया है। विग्रहगति में जघन्य अवगाहना भी पूर्व (उक्त) अवगाहना के सदृश है अतः उसका निषेध करने के लिए 'त्रिसमयवर्ती आहारक' ऐसा कहा गया है । ऋजुगति से त्पन्न हुआ, इस बात के ज्ञापनार्थ 'तृतीयसमयवर्ती तद्भवस्थ' ऐसा कहा गया है ।
शङ्कर-एक, दो या तीन विग्रह करके उत्पन्न कराकर छठे समयवर्ती तद्भवस्थ निगोदजीव के जघन्य स्वामीपना क्यों नहीं ग्रहण किया गया।
समाधान नहीं ग्रहण किया गया, क्योंकि पांच समयों में असंख्यातगुरिणतश्रेणी से वृद्धि को प्राप्त हुए एकान्तानुवृद्धियोग से बढ़ने वाले उक्त जीव के बहुत अवगाहना का प्रसंग आता है। है शङ्का-प्रथमसमयवर्ती आहारक और प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ हुए निगोदजीव के जघन्य अवगाहना का स्वामीपना क्यों नहीं कहा गया ? . समाधान नहीं, क्योंकि उस समय पायतचतुरस्रक्षेत्र के आकार से स्थित उक्त जीव में अवगाहना का स्तोकपना बन नहीं सकता।
शङ्का-जुगति से उत्पन्न होने के प्रथमसमय में प्रायतचतुरस्र स्वरूप से जीवप्रदेश स्थित रहते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? 1 समाधान-यह प्राचार्य परम्परागत उपदेश से जाना जाता है। - शङ्का--द्वितीय समयवर्ती पाहारक और तद्भवस्थ होने के द्वितीयसमय में वर्तमान जीव के बघन्य स्वामीपना क्यों नहीं कहा गया है ?
. मूलाचार पर्याप्ति अ. १२ गा. ४७ का भी पूर्वार्ध इसी प्रकार है।
२. ध.पु. ११ पृ. ३३ सूत्र २० ।