Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१३८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १४
समाधान नहीं, क्योंकि द्वितीयसमय में भी जीवप्रदेश समचतुरस्र स्वरूप से अवस्थित रहते हैं।
शा-द्वितीयसमय में जीवप्रदेशो का विष्कम्भ के समान मायाम हो जाता है, यह कहाँ से जाना जाता है ?
समाधान- यह परमगुरु के उपदेशों से जाना जाता है।
शङ्का-तृतीयसमयवर्ती आहारक और तृतीयसमयवर्ती ही तद्भवस्थ निगोदजीव के जघन्य स्वामीपना किसलिए दिया गया है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उस समय में चतुरस्रक्षेत्र के चारों ही कोनों को संकुचित करके जीवप्रदेशों का वर्तुल अर्थात् गोल आकार से अवस्थान देखा जाता है।
शङ्का-उस समय जीवप्रदेश व लाकार अवस्थित होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान—वह इसी सूत्र से जाना जाता है ।
उत्पन्न होने के प्रथमसमय से लेकर जघन्य उपपादयोग और जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग से तीनों समयों में प्रवृत्त होता है. इस बात को बतलाने के लिए 'जघन्य योगवाले के ऐसा सूत्र में निर्देश किया गया है। तृतीय समय में अजधन्य भी अवगाहना होती है. अतः उनका प्रतिषेध करने के लिए 'शरीर की सर्वजघन्य अवगाहना में वर्तमान' यह कहा गया है। इन विशेषणों से विशेषता को प्राप्त हुए सूक्ष्मनिगोद जीव के जघन्य अवगाहना होती है।"
जो मत्स्य एक हजार योजन की अवगाहनावाला है, उसकी उत्कृष्ट अवगाहना होती है। इस सूत्रांश से जो मत्स्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को आदि लेकर उत्कर्ष से एक प्रदेश कम हजार योजन प्रमाणतक आयाम से स्थित हैं, उनका प्रतिषेध किया गया है।
शङ्का-उत्सेध और विष्कम्भ की अपेक्षा महामत्स्य सदृश पाये जाने वाले मत्स्यों का ग्रहण करने पर भी कोई दोष नहीं है, अत: उनका ग्रहण क्यों नहीं किया गया?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जब तक महामत्स्य के प्रायाम, विष्कम्भ और उत्सेध का परिज्ञान नहीं हो जावे तब तक प्राप्त मत्स्यों के प्रायाम. विष्कम्भ और उत्सेध का परिज्ञान होना किसी प्रकार से सम्भव नहीं है । महामत्स्य का आयाम किसी अन्य सूत्र से नहीं जाना जाता है, क्योंकि इस सूत्र से ज्येष्ठ प्राचीन सूत्रभूत कोई अन्य वाक्य सम्भव नहीं है ।
महामत्स्य का आयाम एक हजार योजन, विष्कम्भ पांच सौ योजन और उत्सेध दो सौ पचास योजन प्रमाण है।
शा—यह सूत्र के बिना कैसे जाना जाता है ?
१. भ. पु. ११ पृ. ३४-३५ । २. घ. पु. ११ सू. ८ पृ. १५ ॥