Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१४२/गो.सा. जीवकाण्ड
माया १७.१००
और पंचेन्द्रिय जीव का बोधक है। द्वीन्द्रिय पयाप्तक जीव की जघन्य अवगाहना अनुन्धरी के होती है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना कुथु के होती है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना कारणमक्षिका के होती है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना सिक्थ (तंदुल) मत्स्य के होती है।' .
द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना से श्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी, इससे चतुरिन्द्रिय जीब को जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी, इससे पंचेन्द्रिय पर्याप्तकजीव की जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी होती है। इस प्रकार ये जघन्य अवगाहना संख्यातगुरिगत क्रम से है। सर्वत्र गुणाकार संख्यातसमय है। ये सर्व जघन्य अवगाहनाएँ घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि संख्यात के बहुत भेद हैं। जैसे-दस से बीस संख्यातगुणा है, बीस से चालीस संख्यातगुणा है, चालीस से ८० संख्यातगुणा है। यद्यपि ये चारों संख्याएँ संख्यातगुरिगतक्रम से हैं तथापि दो अङ्क प्रमागता का उल्लंघन नहीं करती अर्थात ये चारों हो दो अङ्क प्रमाण हैं। इसी प्रकार चारों जघन्य अवगाहनाएँ भी संख्यातगुणित क्रम से स्थित हैं, तथापि धनांगुल के संख्यातवें भाग का उल्लंवन नहीं करती, परस्पर संख्यातगुणित होते हुए भी अंगुल के संख्यातवें भाग ही रहती हैं। सर्व जघन्य से सर्वोत्कृष्ट पर्यन्त अवगाहना के स्वामी तथा इन अवगाहनामों की हीनाधिकता
एवं गुणकार का प्रमाण सुहुमरिणवातेप्राभूयातेग्रा पुरिण पदिदिदं इदरं । बितिचपमाविल्लागं एयाराणं . तिसेढीय ॥७॥ अपदिद्विवपत्तेयं, बितिचपतिचबिअपदिट्ठिदं सयलं । तिचबिअपदिट्ठिदं च य सयलं बादालगुरिणदकमा ९८॥ प्रवरमपुण्णं पढम सोलं पुरण पढमबिदियतवियोली। पुण्णिदर पुण्णयाणं जहण्णमुक्कस्समुक्कस्स ।।६।। पुषगजाणं तत्तो वरं अपुण्णस्स पुण्णउक्कस्सं । बोपण्णजहणोति असंखं संखं गणं तत्तो ॥१०॥
गाथार्थ -सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म तेजकायिकअपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्मपृथ्वीकायिक अपर्याप्तक, बादरवायुकायिक अपर्याप्तक, चादरतेजकायिक अपर्याप्तक, बादरमप्कायिक अपर्याप्नक, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक, बादरनिगोद अपर्याप्तक, बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकाथिक अपर्याप्तक, बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, श्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, इन १६ में से आदि के ११ की तीन श्रेणियाँ करनी चाहिए ।।१७। तीन श्रेणियों के
- - १. प.पु. ११ पृ. ७३ ।