Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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यांचा १०४-१०५
जीवामारा/१४७
प्रगाहना में रहने वाले जीव की तृतीय अजघन्य अवगाहना है। इस प्रकार एक-एक प्राकाशप्रदेश को बढ़ाकर जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण प्राकाशप्रदेशों की वद्धि होने तक ले जाना चाहिए । प्रपन्य अवगाहना को जघन्य परीतासंग्ख्यात से खण्डित करके उनमें से एकखण्ड प्रमाण वृद्धि हो आने पर असंख्यातभागवृद्धि ही रहती है।'
तस्सुवरि इगिपदेसे, झुई प्रवत्तवभागपारम्भी। घरसंखमवहिदवरे, रूऊणे प्रवरउरिजुदे ॥१०॥ तन्वड्डीए चरिमो तस्सुरि रूव संजुदे पढमा ।
संखेज्जभागउड्ढी उबरिमदो रूवपरिवढी ॥१०॥ गाथार्थ-प्रसंख्यातभागवृद्धि के उपयुक्त अन्तिमस्थान अथवा असंख्यात भागवृद्धि के उत्कृष्ट अयान के आगे एताप्रदेश की वृद्धि होने पर प्रवक्तव्य भागहार का प्रारम्भ होता है । जघन्य अवगाहना को उत्कृष्ट संहरात से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उससे एक कम संख्या तक मधन्य में प्रदेशवृद्धि होने पर प्रवक्तव्य वृद्धि का उत्कृष्टस्थान होता है । इससे एक प्रदेश की वृद्धि जीने पर संख्यात भागवद्धि का प्रथमस्थान होता है । उसके ऊपर एक प्रदेश की वृद्धि होने पर भी सल्यातभागवृद्धि ही होती है ।।१०४-१०५।।
विशेषार्थ- अागम में वृद्धि छह प्रकार की कही गई है—अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि । इसीलिए श्री वीरसेन स्वामी ने अन्यज प्रवगाहना को जघन्यपरीतासंख्यात से खण्डित करके उसमें एकखण्ड के मिलाने पर भी असंख्यातआगवृद्धि का उत्कृष्ट स्थान अर्थात् अन्तिमस्थान स्वीकार नहीं किया, किन्तु उससे उपर भी एक-एक प्रदेश की वृद्धि को असंख्यातभागवृद्धि ही कही है, क्योंकि जघन्य अवगाहना को उत्कृष्ट संख्यात से क्षण्डित करने पर जो एकखण्ड प्राप्त हो, उतने प्रदेशों की वृद्धि का अभाव है। इस प्रकार एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए जाकर जघन्य अवगाहना को उत्कृष्टसंख्यात से खण्डित करके उसमें से एक खण्डमात्र जघन्य अवगाहना के ऊपर वृद्धि हो चुकने पर संख्यातभागवृद्धि की आदि और प्रसंख्यातभागबद्धि की परिसमाप्ति हो जाती है ।
जघन्यपरीतासंस्थात में से एक कम कर देने पर उत्कृष्टसंख्यात होता है। जघन्य परीतासंख्यात से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी वृद्धि हो जाने पर यद्यपि असंख्यातभागवृद्धि । की समाप्ति हो जाती है और उत्कृष्ट संख्यात से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी वृद्धि होने पर संख्यातभागवृद्धि का प्रारम्भ होता है। जैसे. १०० में ५ का भाग देने पर २० प्राप्त हुए। १२० हो जाने पर पांचवें भाग की वृद्धि समाप्त हो जाती है। १०० में ४ का भाग देने पर लब्ध २५ प्राप्त होता है। १२५ पर चौथाई भाग की वृद्धि होती है। प्रश्न यह है कि १०० पर २१-२२-२३-२४ की वृद्धि न तो पांचवें भाग की वृद्धि कही जा सकती है और न चौथाई
१. प. पु. ११ पृ. ३६ से ३८ । २. प्रा. प. सूत्र १७ पृ. ५ (शांतिवीरनगर प्रकाशन ] । गो. सा. 'जीवकाण्ड गा. FF ३२२ । ३. घ. पु. ११ पृ ३८ ।