Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा
जीवसमास/१४१
बारह योजन विस्तार को उतनी बार करके अर्थात् १२ योजन विस्तार का वर्ग करने पर जो राशि (१२४ १२-- ) १४४ योजन है, उसमें से मुख (४ यो.) के आधे २ यो, को कम करने पर (१४४ - २ = ) १४२ यो. में मुख के आधे २ योजन के वर्ग (२) योजनको जोड़ देने पर (१४२ + ४ =)१४६ यो. को दुगुणा करके (१४६ ४२ - २६२ यो., इसमें चार का भाग देने पर (२६२:-४ =)७३ वर्गयोजन शंख का क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।३१६1
आयाम १२ यो. में से मुख ४ यो, को कम करके (१२-४ = ) गेप बचे ८ में १२ यो. आयाम को मिलाकर (८+ १२ =)२० यो, में मुख ४ यो. का भाग देने पर (२०:४=) ५ यो. शंख का बाहल्य होता है ॥३२०।। शंख के क्षेत्रफल ७३ यो. को बाहल्य ५ से गुणा करने पर (७३४५ =) ३६५ यो. धनफल प्राप्त होता है। ३६५४३६२३८७८६५६-- १३२२७१५७०१४४० प्रमाणधनांगुल शंस्त्र का धनफल प्राप्त होता है ।
स्वयंप्रभाचल के बाह्म भाग में स्थित उत्कृष्ट अवगाहनावाली श्रीन्द्रियजीव गोम्ही का घनफल इस प्रकार है-गोम्ही का पायाम योजन, इसके आठवें भागप्रमाण विस्तार (४१) योजन और विस्तार का प्राधा बाहुल्य ३४1-योजन । इन तीनों को परस्पर गुणा करने से kxx = १२ घन योजन खातफल प्राप्त होता हैं। जिसका घनप्रमाणांगुल १४३६२३८७८६५६-११६४३६३६ घनप्रमाणांगुल होते हैं।
स्वयंत्रभाचल के बाह्म भाग में स्थित चतुरिन्द्रियजीव भ्रमर की उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन आयाम, आधा योजन ऊंचाई और आधे योजन की परिधि प्रमाण विस्तार अर्थात् विष्कम्भ होता है। आधे (३) योजन की परिधि (३४३) = ३ योजन विष्कम्भवाली है। इस विष्कम्भ योजन के प्राधे (३४) = यो., ऊंचाई योजन से गुणा करके (x)= योजन को प्रायाम १ योजन से गुणा करने पर (ax१) न योजन भ्रमर का खातफल अर्थात् घनफल है। इसके प्रमाणघनांगुल (६४३६२३८७८६५६) = १३५८६५४४६६ होते हैं ।
उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियजीव महामत्स्य का धनफल गा. ६४ की टीका में बताया गया है।
पर्याप्तक द्वीन्द्रियादि जीवों की जघन्य अवगाहना का प्रमाण तथा उसके स्वामी
बितिचपपुण्णजहण्णं अणुधरीकुथुकारणमच्छीम् ।
सिन्छयमच्छे विवंगुलसंखे संखगुणिवकमा ।।६।। गाथार्थ सर्व जघन्य अवगाहना द्वीन्द्रिय जीव में अनुन्धरी को, वीन्द्रियजीव में कुथु की, चतुरिन्द्रिय जीव में काणमक्षिका की और पंचेन्द्रियजीव में सिक्थमत्स्य की होती है, जो घनांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण है, किन्तु संख्यातगुणे क्रम से है ।।६।।
विशेषार्थ- गाथा में 'वि' द्वीन्द्रिय जीव का, 'ति' तीन इन्द्रिय जीव का, 'च' चतुरिन्द्रिय जीव का
१. ति. प. भाग २ पृ. ६३८, सोलापुर।
२. ति.प. भाग २ पृ. ६३६-६३७, सोलापुर 1
३. ति प. भाग