Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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जीयसमास/१३६
समाधान—यह प्राचार्य-परम्परा के प्रवाह-स्वरूप से आये हुए उपदेश से जाना जाता है और महामत्स्य के विष्कम्भ व उत्सेध का ज्ञापक सूत्र है ही नहीं, ऐसा नियम भी नहीं है क्योंकि 'खोयणसहस्सो त्ति' अर्थात् एक हजार योजनवाला इस देशामक सुत्रवचन से उनकी सूचना की गई है।
ये विष्कम्भ और उत्सेध महामत्स्य के सब जगह समान हैं। मुख और पूछ में विष्कम्भ एवं उत्सेध का प्रमाण इतने मात्र ही है, क्योंकि इनमें भिन्न विष्कम्भ और उत्सेध की प्ररूपणा करने वाला सूत्र व व्याख्यान नहीं पाया जाता है । तथा इसके बिना हनार योजन का निर्देश बनता भी नहीं है।
यहाँ के मत्स्य को देखकर 'महामत्स्य का मुख और पूछ अतिणय सूक्ष्म हैं' ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु यह घटित नहीं होता तथा कहीं-कहीं मत्स्य के अङ्गों में व्यभिचार देखा जाता है अथवा ये विष्कम्भ और उत्सेध समकरण सिद्ध हैं, ऐसा कितने ही प्राचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्ममुख से युक्त महामत्स्य एक सौ योजन की अवगाहना वाले अन्य तिमिगलादि मत्स्यों को निगलने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें बिरोध पाता है । अतएव व्याख्यान में महामत्स्य के उपर्युक्त विष्कम्भ और उत्सेध को ही ग्रहण करना चाहिए ।
एक हजार योजन आयाम, पाँच सौ योजन उत्सेध और उसके आधे अर्थात् डाईसी योजन विस्तारवाले महामत्स्य का क्षेत्र भी बनफलम का संकास प्रमाण जांगूल होता है।'
तिलोयपणती भाग २ अ. ५ पृ. ६४० पर कहा है कि स्वयंप्रभाचल के बाह्यभाग में स्थित क्षेत्र में उत्पन्न किसी सम्मूच्र्छन महामत्स्य के सर्वोत्कृष्ट अवगाहना दिखती है जिसकी एक हजार योजन लम्बाई, पाँच सौ योजन विस्तार और इससे आधी अर्थात् ढाई सौ योजन ऊँचाई अवगाहना है। उसके प्रमाणांगुल करने पर चार हजार पाँच सी उनतीस करोड़ चौरासी लाख तेरासी हजार दो सौ करोड़ रूपों से गुणित प्रमागधनांगुल होते हैं । अर्थात् १०००-५००४ २५० - १२५०००००० पोजन घनफल x ३६२३८७८६५६ == ४,५२.६८,४८,३२,००,००,००,००० प्रमाए घनांगुल ।
जघन्य अवगाहना से लेकर उत्कृष्ट अवगाहना तक एक-एक प्रदेश की वृद्धि के क्रम से मध्यम अवगाहना के असंख्यात भेद होते हैं । इस प्रकार अवगाहना के सम्पूर्ण विकल्प असंख्यात होते हैं, क्योंकि एक घनांगुल में असंख्यातप्रदेश होते हैं ।
एकेन्द्रियादि जीवों की उत्कृष्ट प्रवगाहना साहिय सहस्समेकं बारं कोणमेकमेक्कं च ।
जोयणसहस्सदीहं पम्मे वियले महामच्छे ॥६५।। गाथार्थ - पद्म (कमल) एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और महामत्स्य पंचेन्द्रियः इनकी उत्कृष्ट दीर्घता (अवगाहना) कम से कुछ अधिक एक हजार योजन, बारह योजन, एककोश कम एक योजन, एक योजन और एक हजार योजन है ।।६।।
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१. घ. पु. ११ पृ. १५-१६ । २. प. पू. ४ पृ. ३५-३६ । ३, जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर में प्रकाशित ।