Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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• १३४ / गो. सा. जीवकाण्ड
विशेषार्थं सचित्त, शीत, संवृत, श्रचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्तमिश्र, शीतोष्णमिश्र, संवृतविवृत मिश्र, योनियों के ये नौ प्रकार हैं ।' प्रत्यक्षज्ञानियों ने दिव्यचक्षु के द्वारा इन नव प्रकार की योनियों को देखा है और शेष छद्मस्थों ने श्रागम के कथन से जाना है 13 सामान्य से अर्थात् संक्षेप कथन की अपेक्षा योनियाँ नौ प्रकार की होती हैं, किन्तु विशेष अर्थात् विस्तार की अपेक्षा योनियों के ८४ लाख भेद हैं। ---
गाथा ६-६०
योनियों के ८४ लाख भेद
रिच्चिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिदियेसु छच्येव । सुरणिरयतिरियचउरो चोट्स मणुएसु सदसहस्सा ॥ ८६ ॥
गाथार्थ - नित्यनिगोद, इतर (चतुर्गति) निगोद, धातु अर्थात् पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक इस प्रकार इनमें सात-सात शतसहस्र (७ लाख ) योनियाँ हैं । तरु अर्थात् वनस्पतिकायिक में दसलाख, विकलेन्द्रियों ६ लाख, देव नारकी व तिर्यचों में चार-चार लाख, मनुष्यों में १४ लाख योनियाँ होती हैं ||२६|
विशेषार्थ नित्यनिगोद की सात लाख, इतर ( चतुर्गति) निगोद की सात लाख । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक ये चारों धातु कहलाती हैं। इन चारों में प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ होती हैं। इस प्रकार इन छहकायिक जीवों में कुल ४२ लाख योनियाँ होती हैं । तरु अर्थात् प्रत्येक वनस्पति की दस लाख योनियां । विकलेन्द्रियों को ६ लाख घोनियों में हीन्द्रिय की २ लाख, श्रीन्द्रिय की २ लाख और चतुरिन्द्रिय की २ लाख योनियाँ हैं । देवों की चार लाख, नारकियों की चार लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यचों की ४ लाख योनियाँ हैं तथा मनुष्यों की १४ लाख योनियाँ हैं । ये सर्व मिलकर (४२÷१०+६+४+४+४+ १४= ) ६४ लाख योनियाँ होती हैं । * इस प्रकार चतुर्गतिज जीवों की कुल ८४ लाख योनियाँ होती हैं ।
शङ्का – नित्यनिगोदिया कौन जीव हैं और अनित्य निगोदिया कौन जीब हैं ?
समाधान — जो निगोदिया जीव तीनों काल में सपर्याय पाने योग्य नहीं होंगे वे नित्यनिगोद हैं। जो निगोदिया जीव त्रसपर्याय प्राप्त कर चुके या भविष्य में प्राप्त करेंगे वे निगोदपर्यायस्थ जीव अनित्यनिगोद हैं। कहा भी है
"के पुननित्यनिगोता: के चाऽनित्यनिगोता: ? त्रिष्वपि कालेषु प्रसभावयोग्या येन भवन्ति से नित्य निगोता: । त्रसभावमवाप्ता श्रवाप्स्यन्ति च ये ते श्रनित्यनिगोताः ।
इस प्रकार जीवसमास प्ररूपणा में योनिप्ररूपणा पूर्ण हुई ।
गतियों और जन्मो का सम्बन्ध; लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की सम्भावना और असम्भावना जयदादा सुरणिरया गम्भजसम्मुच्छिमा है परतिरिया । सम्मुच्छिमा
मणुस्साऽपज्जत्ता
एलिक्खा ||
१. मुलाचार १२ / ५८ ।
२. रा. वा. २ / ३२/२०१
३. बारस
४. मं. प्र. टीका व राज वा. प्र. २ सु. ३२ वा २७ के आधार से ।
अणुवेक्शा गाथा ३५, मूलाचार १२ / ६३ । ५. रा. बा. २ / ३२ / २७ ।