Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ४
जीवसमास/१३१
समाधान—ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आधार और प्राधेय के भेद से योनि और जन्म में भेद है । सचित्तादिक योनियाँ प्राधार हैं और जन्म के भेद आधेष हैं क्योंकि सचित्तादि योनिरूप प्राधार में सम्मूर्च्छनादि जन्म के द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहगा करता है ।
गर्भ प्रादि जन्मों के स्वामी पोतजरायुजमंडअजीवाणं गम्भदेवरिपरयाणं । उववाद सेसाणं सम्मुच्छरणयं तु सिद्दिढ ॥४।।
___ गाथार्थ--पोत, जरायुज और अंडज-जीवों का गर्भजन्म होता है । देव और नारकियों का उपपाद जन्म होता है । शेष जीवों का सम्मूर्छन जन्म होता है, ऐसा परमागम में कहा गया है ।।४।।
विशेषार्थ-पोत-जरायु, अण्ड आदि सर्व प्राबरण के बिना जिसके सब अवयव पूरे हुए हैं और जो योनि से निकलते ही हलन-चलनादि सामर्थ्य से युक्त है, वह पोत-गर्भजन्म है।
जरायुज-जो जाल के पमा बारिणयों न प्रापरम और जो मांग र शोणित से बना है, यह जरायु है। उसमें उत्पन्न होने वाला जरायुज कहलाता है ।
अण्डज–जो नख की त्वचा के समान कठिन है, गोल है और जिसका प्रावरण शुक्र व मोणित से बना है उसे अण्ड कहते हैं, उसमें जिसका जन्म होता है, वह अण्डज है।'
शा-चोटियों के भी अपडे देखे जाते हैं ?
समाधान-अण्डों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । उपर्युक्त लक्षणवाले अण्डों की उत्पत्ति तो गर्भ में ही होती है, अन्यप्रकार के अण्डों के लिए गर्भ में उत्पत्ति होने का नियम नहीं है।
जरायुजों में ही भाषाध्ययन आदि क्रियाएँ देखी जाती हैं तथा चक्रधर, वासुदेवादि महाप्रभाव. । खाली उसी में उत्पन्न होते हैं एवं सम्यग्दर्शनादि (रत्नत्रय) मार्ग के फलस्वरूप मोक्षसुख का सम्बन्ध
भी जरायुज से है, अन्य से नहीं । पोत से अभ्यहित अण्डज हैं, क्योंकि अण्डजों में अक्षरों के उच्चारण करने में कुशल तोता, मैना आदि होते हैं। पोत, जरायुज और अण्डज ही गर्भजन्म वाले होते हैं अथवा गर्भजन्म वाले ही पोत, जरायुज व अण्डज होते हैं। देव और नारकियों के ही उपपाद जन्म होता है अथवा उपपाद जन्म ही देव-नारकियों के होता है। गर्भजन्म और उपपादजन्म वालों के सिवाय जो शेष रहे मनुष्य और तिर्यच हैं, उनके सम्मूच्र्छन जन्म ही होता है। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त सभी जीव तथा लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय मनुष्य-तिथंच नियम से सम्मूच्र्छन ही होते हैं । संज्ञी च असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंचों में भी किन्हीं के सम्भूर्छन जन्म होता है।
१. सर्वार्थसिद्धि । २. सर्वार्थसिद्धि २/३३ । ३. ध. पु. १ पृ. ३४६ । ४. राजवातिक २/३३ । ५. 'जरायुजाण्डअपोतानां गर्भ:' (त. सू. प्र. २ सू. ३३)। ६. 'देवनारकामामुपपाद.' (त. सू. प्र. २ सू. ३४)। ७. 'शेषाणां समच्छेनं (त. मू. प्र. २ सू. ३५) ।