Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ८२
जीवसमास/१२९
कुर्मोन्नत और वंशपय योनि में उत्पन्न होने वाले जीवों का निर्देश 'कुम्मुण्णपजोगीए, तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य । रामा वि य जायते, सेसाए सेसगजरणो य ॥२॥
गाथार्थ कूर्मोन्नतयोनि में तीर्थकर, दो प्रकार के चक्रवर्ती ब बलभद्र उत्पन्न होते हैं । शेष तृतीययोनि में शेष (अन्य) मनुष्य उत्पन्न होते हैं ।। ८२।।
विशेषार्थ - कूर्मोनतयोनि विशिष्ट सर्वशुचि प्रदेशवाली व शुद्धपुद्गलों के प्रचय (समूह) वाली होती है। उसमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और प्रतिवासुदेव तथा बलदेव उत्पन्न होते हैं। शेषजन अर्थात् भोगभूमिज आदि वंशपत्रयोनि में उत्पन्न होते हैं। गाथा में 'दुविह चक्कवट्टी' दो प्रकार के चक्रवर्ती कहे गये हैं, सो सकलचक्रवर्ती और अर्धचक्रवर्ती के भेद से चक्रवर्ती दो प्रकार के होते हैं । वासुदेव और प्रतिवासुदेव अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण ये दोनों अर्धच प्रवर्ती होते हैं । 'रामा' 1 से अभिप्राय नारायण के भाई बलदेव का है।'
जन्म के भेद और तत्सम्बन्धी गुणयोनियां जम्मं खलु सम्मुच्छरणगब्भुववादा दु होदि तज्जोणी । सच्चित्त-सीदसउंडसेदर मिस्सा पत्तेयं ।।८३॥
गाचार्य-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद निश्चय से इन तीन प्रकार का जन्म होता है। जन्म की योनियां सचित्त, शीत, संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षी अचित्त, उष्ण, विवृत एवं प्रत्येक की मिश्र होती हैं। इनमें से यथासम्भव प्रत्येक योनि को सम्मूर्छन आदि जन्म के साथ कहना चाहिए ॥८३॥
विशेषार्थ --संसारीजीवों का जन्म या उत्पत्ति पूर्वभव के शरीर को छोड़कर उत्तरभव के शरीर का ग्रहण करना है। यद्यपि परमार्थ से बिग्रहगति के प्रथम समय में उत्तरभवसम्बन्धी प्रथम पर्याय के प्रादुर्भाव को जन्म कहते हैं, क्योंकि पूर्वपर्याय का विनाश (व्यय) और उत्तरपर्याय का
प्रादुर्भाव (उत्पाद) एकसमय में होते हैं; जैसे अंगुलि के ऋजुपने का विनाश जिस समय में होता है । उसी समय में बऋाने का उत्पाद होता है, दोनों में समयभेद नहीं है, तथापि सम्मूछनादिरूप से युगलपिण्ड के ग्रहण करने को उपचार से जन्म कहते हैं. क्योंकि पूर्वपर्याय के अभाव और उसी समय उत्तरपर्याय के प्रादुर्भावरूप जो जन्म होता है उसके समीपवर्ती समय में शरीरग्रहण का प्रथमसमय होने से पर्याय का उत्पाद उपचार से जन्म कहलाता है। जैसे-गंगातट को उपचार से गंगा कहा जाता है, क्योंकि समीपता का सदभाब उपचार में निमित्त है 1 अथवा जगति से उत्पन्न होने वालों की अपेक्षा जो उत्तरभव का प्रथम समय है बही परीरप्रहण का प्रथम ममय है और वही पूर्वभव के विनाश का समय है, क्योंकि उत्पाद और व्यय युगपत होते हैं, अत: ऋजगति से उत्पन्न होने वालों की अपेक्षा शरीरग्रहण का प्रथमसमय जन्म का मुख्यलक्षण है । संसारी जीवों का जन्म तीनप्रकार से होता है-सम्मूर्छनजन्म, गर्भजन्म और उपपादजन्म । तत्वार्थसूत्र में भी कहा है- “सम्मूच्र्छनगर्भोपपादा
१. मूलाचार पर्याप्ति अधिकार गा. ६२ ।
२. मूलाचार टीका व म.प्र. टीका के प्राधार से ।