Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गुणस्थान/३
होता है और ऐसा मानने पर इच्छा सहित होने से ये भगवान् असर्वज्ञ ही प्राप्त होते हैं । किन्तु ऐसा स्वीकार करना अनिष्ट ही है ?
समाधान-किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि अभिप्राय से रहित होने पर भी कल्पवृक्ष के समान इन भगवान् के पदार्थ के सम्पादन की सामर्थ्य बन जाती है । अथवा प्रदीप के समान इन भगवान की बह सामर्थ्य बन जाती है क्योंकि दीपक नियम से कृपालुपने से अपने प्रौर पर के अन्धकार का निवारण नहीं करता, किन्तु उस स्वभाव वाला होने के कारण ही वह अपने प्रौर पर के अन्धकार का निवारण करता है । जैसा कहा है1 हे जगद्गुरो ! आपने जमत के लिये जो हित का उपदेश दिया है वह कहने की इच्छा के बिना ही दिया है, क्योंकि ऐसा नियम है कि कल्पवृक्ष बिना इच्छा के हो प्रेमीजनों को इच्छित फल देता है।
हे मुने ! आपकी शरीर, वचन और मन की प्रवृत्तियाँ बिना इच्छा के ही होती हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपकी मन, वचन और कायसम्बन्धी प्रवृत्तियाँ बिना समीक्षा किथे होती हैं । हे धीर ! प्रापकी चेष्टायें अचिन्त्य है।
कहने की इच्छा का सन्निधान होने पर ही वचन की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि यह हम स्पष्ट देखते हैं कि मन्दबुद्धि जन इच्छा रखते हुए भी शास्त्रों के वक्ता नहीं हो पाते ।' इत्यादि ।
इसलिये परम-उपेक्षालक्षणरूप संयम की विशुद्धि को धारण करने वाले इन भगवान के बोलने और चलनेरूप व्यापार प्रादि अतिशयविशेष स्वाभाविक होने मे पुण्यबंध के हेतु नहीं हैं, ऐसा महो जानना चाहिए । जैसा कि आर्ष में कहा है :
तीर्थकर परमेष्ठी का विहार लोक को सुख देने वाला है, परन्तु उनका यह कार्य पुण्य फल वाला महीं है और उनका बचन दान-पूजारप प्रारम्भ को करने वाला तो है फिर भी उनको कमी से लिप्त नहीं करता।
पुन: इस महात्मा का वह बिहारातिशय भूमि को स्पर्श न करते हुए ही आकाश में भक्तिवश औरित हुए देवसमूह के द्वारा रचे गये स्वर्णकमलों पर प्रयत्न विशेष के बिना ही अपने माहात्म्य विशेषवश प्रवृत्त होता है, ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि योगियों की शक्तियाँ अचिन्त्य होती हैं ।
ऐसे वे केवली उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक विहार करके तत्पश्चात् प्रायुकर्म मन्तमहत शेष रहने पर अधातिकर्मों की स्थिति को समान वरने के लिए पहले प्रावजित-करण नाम की दूसरी क्रिया को प्रारम्भ करता है।
राजूर-श्रावजितकरण क्या है ? समाधान केवलीसमुद्घात के अभिमुख होना आवर्जितकरण कहा जाता है। उसे यह अन्तर्मुहूर्त काल तक पालन करता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रायजितकरण
. जयघवल मूल पृ. २२७१ ।