Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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९२ / गो. सा. जीवकाण्ड
समय में दण्डसमुद्घात का उपसंहार करता है ॥२॥१
गाथा ६३-६४६
इसके बाद केवलसमुद्धात प्ररूपणा समाप्त होती है।
अब उतरने वाले केवली जिन के प्रथम समय से लेकर स्थितिघात और अनुभागघात की प्रवृत्ति कैसी होती है ? ऐसी आशंका होने पर निःशंक करने के लिये आगे का सूत्र कहते हैंफेलिसा से उसी के प्रथम से लेकर शेष रही स्थिति के संख्यात बहुभाष का हनन करता है ।
एत्तो अर्थात् उतरने वाले के प्रथम समय से लेकर शेष रही अन्तर्मुहूर्त प्रसारण स्थिति के संख्यात बहुभाग को काण्डक रूप से ग्रहण कर स्थितिघात करता है, क्योंकि वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
तथा वहाँ शेष रहे अनुभाग के प्रनन्त बहुभाग का हनन करता है ।
पहले घात करने से शेष बचे अनुभाग सत्कर्म के अनन्त बहुभाग का काण्डक रूप कर अनुभागधात यह जीव करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
ग्रहण
इसके श्रागे स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डक का उत्कीरणकाल श्रन्तर्मुहूर्तप्रमाण
होता है।
लोकपुरसमुद्घात के सम्पन्न होने के अनन्तर समय से लेकर प्रत्येक समय में स्थितिघात श्रीर अनुभागधात नहीं होता । किन्तु स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात का काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यह यहाँ सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इतनी विधि से केवलसमुद्घात का उपसंहार करके स्वस्थान में विद्यमान केवली जिन के संख्यात हजार स्थितिकाण्ड और अनुभागकाण्ड के समय के अविरोधपूर्वक हो जाने पर तदनन्तर योगनिरोध करता हुआ इन दूसरी क्रियाओं को रचता है, इसका ज्ञान कराने के लिये आगे के सूत्र प्रबन्ध को प्रारम्भ करते हैं --
१. जयधवल मूल प्र. २२८२ । २. जयधवल मूल पृ. २२८२-८३ ।
श्रागे अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर-काययोग के द्वारा बादर- मनोयोग का निरोध करता है ।
मन, बचन और काय की चेष्टा प्रवृत्त करने के लिये कर्म के ग्रहण के निमित्त शक्तिरूप जो जीव का प्रदेशपरिस्पन्द होता हैं वह योग कहा जाता है । परन्तु वह तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इसका अर्थ सुगम है, उनमें से एक-एक अर्थात् प्रत्येक दो प्रकार का हैबादर और सूक्ष्म | योगनिरोध क्रिया के सम्पन्न होने से पहले सर्वत्र वादरयोग होता है। इससे आगे सूक्ष्मयोग से परिणमन कर योगनिरोध करता है, क्योंकि बादरयोग से ही प्रवृत्त हुए केबली जिन के योग का निरोध करना नहीं बन सकता है । उसमें सर्वप्रथम यह केवली जिन योगनिरोध के लिये चेष्टा करता हुआ बादरकाययोग के अवलम्बन के बल से बादर मनोयोग का निरोध करता है,