Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६३-६४
गुणस्थान /६३
क्योंकि बादर काययोगरूप से व्यापार ( प्रवृत्ति) करता हुआ ही यह केवली जिन बादर मनोयोग की शक्ति का निरोध करके सूक्ष्म रूप से संज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त के सबसे जघन्य मनोयोग से घटते हुए श्रसंख्यात गुणहीन रूप से उसे स्थापित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमारण काल तक बादर काययोग के रूप से विद्यमान केवली जिन बादर मनोयोग की शक्ति का निरोध करके तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल के द्वारा उसी वादर काययोग का अवलम्बन करके बादर वचनयोग की शक्ति का भी निरोध करता है, ऐसा प्रतिपादन करते हुए आगे के सूत्र को कहते हैं
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल से बादरकाययोग द्वारा बादरवचनयोग का निरोध करता है ।
यहाँ पर बादर बचनयोग ऐसा कहने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त के सब से जघन्य वचनयोग श्रादि परम योगशक्ति का ग्रहण करना चाहिए । उसका निरोध करके उसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त के जघन्य वचनयोग से नीचे असंख्यात गुरणहीन रूप से स्थापित करता है इस प्रकार यह इस सूत्र का
भावार्थ है ।
उसके बाद श्रन्तर्मुहूर्त काल से बादर काययोग द्वारा बादर उच्छ्वास- निःश्वास का निरोध करता है ।
यहाँ पर भी वादर उच्छवास निःश्वास ऐसा कहने पर सूक्ष्म निगोद निर्वृत्तिपर्याप्त जीव के पानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए सब से जघन्य उच्छ्वास - निःश्वासशक्ति से श्रसंख्यातगुणी संजीपञ्चेन्द्रिय के योग्य उच्छ्वास- निःश्वास रूप परिस्पन्द का ग्रहण करना चाहिए । उसका निरोधकर उसे सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोद की उच्छ्वास निःश्वास शक्ति से नीचे असंख्यातगुणी होन सूक्ष्मभाव से स्थापित करता है, इस प्रकार यह यहाँ सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । '
शङ्का सूत्र में निर्दिष्ट नहीं किया गया इस प्रकार का विशेष कैसे जाना जाता है ?
समाधान इस प्रकार की आशंका यहाँ नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्याख्यान से उस प्रकार के विशेष का ज्ञान होता है ।
उसके बाद प्रन्तर्मुहूर्तकाल से बादर काययोग के द्वारा उसी बादर काययोग का निरोध करता है ।
यहाँ पर भी बाबर काययोग से व्यापार करता हुआ ही अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा उसी बादरकाययोग को सूक्ष्म भेद में स्थापित कर निरोध करता है; यह सूत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध है, क्योंकि सूक्ष्म निगोद के जघन्य योग से भी असंख्यातगुणी हीन शाचित रूप से परिणमकर सुक्ष्म रूप से उसकी इस स्थान में प्रवृत्ति का नियम देखा जाता है । यहाँ पर उपयोगी दो श्लोक हैं
जो श्री पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव जधन्य योग से युक्त होता है उससे भी प्रसंख्यातगुणे हीन मनोयोग का केवली जिन निरोध करता है || १ ||
१. जयघवल मूल पृ. २२८३ ।