Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाषा ७५-७६
जीवसमास/१२३
श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, (६) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक, (७) पृथ्वीकायिक,अप्रकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय, (८) पृथ्वी कायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, संजीपंचेन्द्रिय और असंज्ञोपंचेन्द्रिय,(8) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, (१०) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकाधिक, वनस्पतिकायिक, इन पाँच स्थावरकाय में अस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय. संशीपंचेन्द्रिय और असंजीपंचेन्द्रिय इन पाँच भेदों को मिलाने से दसस्थान हो जाते हैं । जीव। समास में जो प्रथमस्थान है वह संग्रहात्मक द्रव्याथिकनय की अपेक्षा है और शेष स्थान भेद रूप होने । से व्यवहारनय की प्रधानता से हैं ॥७५।। (११) पाँच स्थावरकाय के बादर व सूक्ष्म की अपेक्षा पाँधयुगल अर्थात् बादरपृश्वीकायिक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, बादरप्रकायिक-सूक्ष्मअप्कायिक, बादरतेज
कायिक-सूक्ष्मतेजकायिक, बादरवनस्पतिकायिक-सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, इस प्रकार स्थावर के १० भेदों । में त्रसका यिक मिलाने से जीवसमास के ग्यारहस्थान, (१२) इन्हीं पाँच युगलों अर्थात् बादर व । सूक्ष्मपृथ्वी-अप-तेज-वायु-वनस्पतिकायिकों में त्रस के विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय ये दो भेद मिलाने से बारह स्थान (१३) उन्हीं पाँच स्थावरयुगलों में अर्थात् स्थावर के उक्त दस भेदों में त्रस के विकलेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय व असंझीपंचेन्द्रिय ये तीन भेद मिलाने से तेरह स्थान, (१४) उन्हीं पांच स्थावर युगलों में अस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय ये चार भेद मिलाने से चौदहस्थान, (१५) उन्हीं पाँच स्थावर युगलों में उस के द्वीन्द्रिय, ओन्द्रिय, अन्त तामाकोर असंज्ञोपंचेन्द्रिय इन पांच भेदों को मिलाने से पन्द्रहस्थान, (१६) स्थावर के छह युगल व प्रत्येकवनस्पतिकायिक अर्थात् बादरपृथ्वीकायिक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, सूक्ष्मप्रकायिक, बादर तेजकायिक-सूक्ष्म तेजकायिक, दादर वायुकायिक-सूक्ष्मवायुफायिक, बादर नित्यनिगोद (साधारण वनस्पतिकायिक) सूक्ष्मनित्यनिगोद, बादरचतुर्गति निगोद-सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोद इन छह युगलों के बारह और प्रत्येकवनस्पति इस प्रकार स्थावरकायिक के १३ भेदों में विकलेन्द्रिय, संज्ञीपंचेन्द्रिय व असंज्ञीपंचेन्द्रिय प्रस के इन तीन भेदों को मिलाने से १६ स्थान. (१७)स्थावर के उक्त १३ भदों में वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय. चतरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अस के ये चार भेद मिलाने से १७ स्थान, (१८) स्थावर के उक्त तेरह स्थानों में दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय संजीपंचेन्द्रिय और प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय अस के पाँच भेद मिलाने से १८ स्थान होते हैं ।।७६॥ (१६) स्थावर के सात युगल अर्थात बादर पृथ्वीकायिक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक बादरअप्कायिक-सूक्ष्मप्रकायिक, बादरतेजकायिक-सूक्ष्मतेजकायिक, बादरवायुकायिक-सूक्ष्मवायुकायिक, बादरनित्यनिगोद-सूक्ष्मनित्यनिगोद, बादरचतुर्गतिनिगोद-सूक्ष्मचतुर्गतिनिगोद, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक-अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संझीपंचेन्द्रिय, असंजीपंचेन्द्रिय स के इन पाँच भेदों को मिलाने से जीवसमास के १६ स्थान होते हैं । एक से उन्नीस पर्यन्त सर्वस्थानों को एक से, दो से और तीन से यथाक्रम गुगणा करने से अन्तिम उन्नीसस्थान, ३८ स्थान और ५७ स्थान जीवसमास के हो जाते हैं ॥७७|| जीवसमास के एक से उन्नीस पर्यन्त इन सर्व स्थानों की तीन पंक्तियाँ करनी चाहिए अर्थात् एक, दो, तीन, चार आदि इस प्रकार एक-एक बढ़ते हुए १६ तक जीबसमास के १६ स्थान होते हैं । इन उन्नीस स्थानों की तीन पंक्तियाँ करनी चाहिए । उनमें से प्रथमपंक्ति सामान्य की अपेक्षा से है, क्योंकि इसमें पर्याप्त ब अपर्याप्त का विकल्प नहीं है।
१. ये तु साधारणवनस्पतिकायिकास्ते नित्यचतुगंतिनिगोदजीवाः बादराः सूश्माश्च भवन्ति । (वा. का. अनु. गा. १२४ की टीका)।