Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१२४ / गो. सा. जयकाण्ड
गाया ३६
इस प्रथम पंक्ति में उन १३ स्थानों में से प्रत्येक को एक से गुणा करने पर वही अङ्क प्राप्त होगा अर्थात् एक से १६ पर्यन्त १९ स्थान प्राप्त होंगे । द्वितीयपंक्ति में अपूर्ण श्रर्थात् अपर्याप्त और इतर अर्थात् पर्याप्त की विवक्षा होने से दो गुणा करने से प्रत्येक स्थान के अङ्क दुगु हो जाते हैं अर्थात् दो, चार, छह, आठ आदि इस प्रकार दो-दो बढ़ते हुए ३८ पर्यन्त स्थान प्राप्त होते हैं। पुनः श्रप्रथमा अर्थात् तृतीयपंक्ति में पर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त और निर्ऋत्यपर्याप्त की विवक्षा होने से प्रत्येक अङ्क को तीन से गुणा करने पर तीन छह-नौ-बारह आदि तीन-तीन को वृद्धि होते हुए सत्तावन (५७) तक जीवसमास के स्थानों की संख्या प्राप्त होती है। यद्यपि दूसरी व तीसरी पंक्तियाँ प्रप्रथमा हैं, किन्तु गाथा में द्वितीय पंक्ति का पृथक उल्लेख होने से अप्रथमा के द्वारा तृतीय पंक्ति का ग्रहण होता है || ७८ || १
थ. पु. २ पृ. ५६१ पर जीवसमासों के स्थानों का कथन इसप्रकार है---दो अथवा तीन, चार . अथवा छह छह अथवा नौ आठ अथवा बारह, दस अथवा पन्द्रह बारह अथवा अठारह चौदह अथवा इक्कीस, सोलह अथवा चौबीस, अठारह अथवा सत्ताईस, बीस अथवा तीस, बावीस अथवा तंतीस, चौबीस अथवा छत्तीस, छब्बीस अथवा उनचालीस, अट्ठाबीस अथवा बयालीस, तीस अथवा पैतालीस, . बत्तीस अथवा अड़तालीस, चौंतीस अथवा इक्कावन, छत्तीस प्रथवा चौपन अड़तीस अथवा सत्तावन, जीवसमास होते हैं । इनका विशेष स्पष्टीकरण ध. पु. २. के पृ. ५६१ से ५६६ तक है, वहाँ से जान लेना चाहिए ।
धवलाकार आचार्य श्री वीरसेनस्वामी ने निर्वृतिपर्याप्त व निर्वृत्यपर्याप्त की अपेक्षा से संख्या का कथन किया है अथवा निवृत्तिपर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त श्रीर लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा कथन किया है, 'सामान्य की अपेक्षा संख्या का कथन नहीं किया है, किन्तु गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ७८ में सामान्य की अपेक्षा से भी संख्या का कथन प्रथभपंक्ति में किया गया है । यद्यपि धवला टीका और गोम्मटसार जीवकाण्ड में जीवसमासस्थान संख्या में मात्र सामान्य की अपेक्षा संख्या का कथन करने और न करने का . ही अन्तर है, अन्य कोई अन्तर नहीं है तथापि भेदों के विशेषविवरण में बहुत अन्तर है। जैसे गोम्मट'मार में त्रस और स्थावर ऐसे दो जीवसमासों का कथन किया गया है, किन्तु धवला टीका में पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो जीवसमास कहे गये हैं । विशेष जानने के लिए घ. पु. २ पृ. ५६१ से ५६६ तक देखना चाहिए । जीवसमास की स्थान संख्या का विवरण इस प्रकार है-
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सामान्य की अपेक्षा -- पर्याप्त पर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त नित्यपर्याप्तअपर्याप्त की अपेक्षा -
१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६ २, ४, ६, ८, १०, १२, १४, १६, १८, २०, २२, २४, २६, २८, ३०, ३२, ३४, ३६, ३५ ३, ६, ६, १२, १५, १८, २१, २४, २७, ३०, ३३, ३६, ३९, ४२, ४५, ४८, ५१, ५४. ५७
हम जीवसमासों का कथन
sfraणं इगिविगले ससिगियजलथलखगाणं । गन्भभवे सम्मुच्छे दुतिगं भोगयलखेचरे दो दो ॥ ७६ ॥
१. मन्दप्रबोधिनी टीका के आधार से ।