Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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समा ७१-५०
जीवसमास/१२५
प्रज्जवमलेच्छमणुए, तिदुभोगभूमिजे दो यो ।
सुरणिरये दो दो इवि, जीवसमासा हु अडणउदी ॥५०॥ गाथार्थ--एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के इक्कावन (५१), (पंचेन्द्रियतिर्यचों में) जलचर, . स्थल पर प्रौर नभचर के संजी व असंज्ञियों में गर्भज के दो और सम्मुर्छन के तीन भेद तथा भोग
भूमिज थलचर और नभचर के दो-दो भेद होते हैं ।।७६ ।। आर्यखण्ड के मनुष्यों के तीनभेद, म्लेच्छखंड के मनुष्यों के दो भेद, भोगभूमिज मनुष्यों के दो और कुभोगभूमिज मनुष्यों के दो भेद, देवों के और नारकियों के दो-दो भेद; इस प्रकार कुल ६८ जीवसमास होते हैं ।।१०।।
विशेषार्थ--एकेन्द्रिय स्थावर के पूर्वोक्त सातयुगलों के १४ तथा विकलेन्द्रिय के ३, इसप्रकार इन (१४ + ३) १७ भेदों को पर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त-निवृत्यपर्याप्त इन तीन से गुणा करने पर एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियसम्बन्धी (१७४३) ५१ विशेष जीवसमास होते हैं, क्योंकि इन १७ में सभी का सम्मूर्छन जन्म पाया जाने से पर्याप्तादि तीनों भेद होते हैं । कर्मभूमिज संशी व असंज्ञो पंचेन्द्रियतिर्यचों के जलचर, यलचर, नभचर में गर्भजों के पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त ऐसे दो-दो भेद होते हैं, क्योंकि गर्भजों में
सध्यपर्याप्तक नहीं होते 1 इस प्रकार गर्भज संजी व असंज्ञी कर्मभुमिज तिर्यंचों में बारह जीवसमास ! होते है, किन्तु इन्हीं के सम्मूर्छनों में लब्ध्यपर्याप्तक भी होते हैं अतः सम्मूच्र्छनों में (संज्ञी-असंज्ञी २,
जलचर-थलचर-नभचर ३, पर्याप्त-निर्वृत्त्यपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ३-२४३४३) १८ जीवसमास होते है। इसप्रकार कर्मभूमिज पन्द्रियांत/त्रों के। १२ - १८) ३० जीवसमास होते हैं । इनमें भोगभूमिजों
के चार जीवसमास मिलाने पर पंचेन्द्रियतियं चों के समस्त जीवसमास (३० + ४) ३४ होते हैं। इन्हीं । ३४ जीव समासों में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियसम्बन्धी ५१ भेद मिलाने पर तिर्यचों के (३४ + ५१)
८५ जीवसमास हो जाते हैं।
कर्मभूमिज ग्रार्थखण्ड के मनुष्यों में पर्याप्त, नित्यपर्याप्त और लध्यपरित ये तीन जीवसमास हैं, किन्तु म्लेच्छखण्ड में लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं होते, अतः पर्याप्त और निर्दयपर्याप्त रूप दो ही भेद होते हैं । इसी प्रकार भोगभूमि और कुभोगभूमि में भी लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं होते अतः उनमें भी मनुष्यों के दो-दो जीवसमास पाये जाने से मनुष्यसम्बन्धी सर्व (३+२+२+२) जीवसमास होते हैं । देवगति के दो तथैव नरकगति के भी दो जीवसमास हैं. क्योंकि देवों और नारकियों में पर्याप्त और नित्यपर्याप्त ये दो ही भेद पाये जाते हैं; लब्ध्यपर्याप्तक भेद देवों और नारकियों में नहीं होता। इसप्रकार पंचेन्द्रियति र्यच सम्बन्धी उक्त ३४ भेदों में मनुष्य, देव, मरकगति सम्बन्धी (६+४) १३ भेद मिलाने में चारों गतियों के पंचेन्द्रियजीव सम्बन्धी (३४+१३) ४७ जीवसमास होते हैं । एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय सम्बन्धी ५१ भेद मिलकर (४७ + ५१) जीवसमास हो जाते हैं। (मन्दप्रबोधिनी टीका के प्राचार से)
स्वामिकार्तिकयामुप्रेक्षा गाथा १३१-१३२-१३३ की टीका में श्री शुभचन्द्राचार्य ने जीवसमास के जो १५ स्थान बताये हैं, वे इस प्रकार हैं--सम्मुर्छनतिर्यचों के ६६ और गर्भज तिर्यचों के १६ भेद होते हैं।
शङ्का--सम्मूच्र्छन किसे कहते हैं ? समाधान- शरीर के प्राकार रूप परिणमन करने की योग्यता रखने वाले पुद्गलस्कन्धों का