Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१२२/गो. सा. जोधकाण्ड
गाथा ७५-७८
विशेषार्थ–एक जोवसमास, दो जीवसमास, तीन जीवसमास इत्यादि जीवसमास के भेद करके कथन करना जीवसमास की स्थान के द्वारा प्ररूपणा है। उत्पत्ति के आधार को योनि कहते हैं । सचित्त प्रादि योनि के भेदों के द्वारा जीवसमासों का कथन करना, जीवसमास की योनि द्वारा प्ररूपरणा है । सूक्ष्मलब्ध्यपर्याप्तनिगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना से लेकर पाँच सौ धनुष के महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना तक अवगाहन विकल्पों के द्वारा जीवसमासों का कथन करना, शरीरप्रवगाहना के द्वारा जीवसमास प्ररूपणा है। नानाशरीरों की उत्पत्ति में कारणभूत नोकर्मवर्गणा अनेक प्रकार की है। उन नोकर्मवर्गणाओं के भेद से कुलों में भेद हो जाते हैं। कुलभेव की अपेक्षा जीवसमास का कथन करना कुल के द्वारा जीवसमास प्ररूपणा है। सर्व उत्तरोत्तर विशेषभेदों सहित जीवसमासों का कथन करना चाहिए । विशेषगों के द्वारा जो परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपरणा कहते हैं।
प्रथम स्थान-अधिकार द्वारा जीवममास की प्ररूपरणा सामण्णजीव तसथावरेसु इगिविगलसयल चरिमदुगे । इंदियकाये चरिमस्स य तिचदुरपणमेद हे ।।५।। परणजुगले तससहिये तसस्स दुतिचदुरपरणगभेदजुदे । छन्चुगपत्तेपालि य तसस्स तियचदुरपरणगभेदजुवे ।।७६॥ सगजुगलह्मि तसस्स य पणभंगजुदेसु होंति उरणधीसा । एमादुरणवीसोत्ति य इमिचितिगुरिणदे हवे ठाणा ।।७७।। सामण्णेरण तिपती पढमा विदिया अपुण्णगे इदरे ।
पज्जते द्धिप्रपज्जतेऽपढमा हवे पंती ॥७॥ गाथार्थ--सामान्यजीव, त्रस व स्थावर, एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सकलेन्द्रिय, अन्तिम (सकलेन्द्रिय) के दो भेद करने से, इन्द्रिय, काय, फिर अन्तिम (वसकाय) के दो भेद करके, तीनभेद करके, चारभेद करके और पाँचभेद करके पंचस्थावरों में मिलाने पर ७-८-६-१० स्थान हो जाते हैं ।।७५|| पाँच स्थावरयुगलों में त्रस मिलाने से तथा त्रस के दो, तीन, चार और पाँच भेद करके मिलाने से ११-१२-१३-१४-१५ स्थान होते हैं । छह युगलों और प्रत्येकवनस्पति में त्रस के तीनचार-पाँच भेद करके १६-१७-१८ स्थान होते हैं 11७६।। स्थाबर के सातयुगलों में बस के पाँच भेद मिलाने से १६ वां स्थान होता है। इन एक से १६ तक सर्वस्थानों को एक-दो व तीन से गुणा करने पर स्थान उत्पन्न हो जाते हैं ॥७७।। इन १६ स्थानों की तोन पंक्ति करनी । प्रथमपंक्ति सामान्य को अपेक्षा, द्वितीय पंक्ति पर्याप्त व अपर्याप्त की अपेक्षा, तृतीयपंक्ति पर्याप्त-नित्यपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा करनी चाहिए ।।७।।
विशेषार्थ-(१) सामान्यजीव, (२) त्रस व स्थावर (३) एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सालेन्द्रिय, (४) एकेन्द्रिय, बिकलेन्द्रिय, संजीपंचेन्द्रिय और अंसंज्ञीपंचेन्द्रिय, (५) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,
१. प.पु. २ पृ.
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