Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बाबा ७४
जीवसमास/१२१
बावर--अन्य बाधाकर शरीर का निर्वतक कर्म बादर नामकर्म है। यदि बादर नामकर्म न हो तो बादरजीदों का प्रभाव हो जावेगा, किन्तु ऐसा है, नहीं क्योंकि प्रतिधाती शरीरवाले जीवों की भी उपलब्धि होती है।
सूक्ष्म--सूक्ष्मशरीर का निर्वर्तक कर्म सूक्ष्मनामकर्म है । यदि सूक्ष्मनामकर्म न हो तो सूक्ष्म जीवों का अभाव हो जावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि अपने प्रतिपक्षी के अभाव में बादरकायिक जीवों के भी प्रभाव का प्रसंग पाता है। जिनके शरीर की गति का जल-स्थल आदि के द्वारा
प्रतिघात नहीं होता, वे सूक्ष्मजीव हैं । । पर्याप्त—जिसके उदय से प्राहारादि पर्याप्तियों की रचना होती है, वह पर्याप्ति नामकर्म है। वह छहप्रकार का है । आहारपर्याप्ति नामकर्म, शरीरपर्याप्तिनामकर्म, इन्द्रियपर्याप्तिनामकर्म, प्राणापानपर्याप्तिनामकर्म, भाषापर्याप्ति नामकर्म और मनःपर्याप्तिनामकर्म ।' यदि पर्याप्ति नामकर्म न हो तो सभी जीव अपर्याप्त हो जायेंगे, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि पर्याप्तजीवों का सद्भाव पाया जाता
अपर्याप्त—जिसकर्म के उदय से जीव पर्याप्तियों को समाप्त करने के लिए समर्थ नहीं होता बह अपर्याप्तनामकर्म है । यदि अपर्याप्त नामकर्म न हो तो सभी पर्याप्तक ही होंगे, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षित के भी प्रभाव का प्रसंग पाता है।
प्रत्येकशरीर-शरीरनामकर्म से रचा गया शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोग का कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से एकशरीर में एक ही जीव | जीवित रहता है वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है ।' यदि प्रत्येक शारीर नामकर्म न हो तो एक शरीर में एक जीव का ही उपलम्भ न होगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि उनका सद्भाव पाया जाता है।"
साधारणशरीर-बहुत आत्माओं के उपभोग का हेतुरूप साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है ।१२ यदि साधारण नामकर्म न हो तो सभी जीव प्रत्येकशरीर हो जायेंगे, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षित जीव के भी प्रभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।
जीवसमास का विशेष कथन करने वाले चार अधिकारों का नामनिर्देशःठाणेहिं वि जोगीहिं वि देहोग्गाहणकुलाणभेदेहि ।
जीवसमासा सम्वे परुविवव्या जहाकमसो ॥७४।। गाथार्य-सर्व जीवसमासों की प्ररूपणा यथाक्रम स्थान, योनि, शरीर की अवगाहना और कुल के भेदों के द्वारा करनी चाहिए ॥७४॥
१.स. सि. ८/११। २. प. पु. ६ पृ. ६१। ३. स. सि. १/११। ४. प. पु. ६ पृ. ६२। ५. स्वा. का. अनु, गा. १२३ । ६. स.सि. ८/११। ७. प.पु. ६ पृ. ६५। ८. प.पु. ६ पृ. ६२। ९. स.सि. ८/११ । १०. घ. पु. १३ पृ. १६५। ११. प.पु. ६ पृ. ६२ । १२. ध.पु. १३ पृ. ३६५। १३. प.पु. ६ पृ. ६३ ।