Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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नाफा ७२-७३
जीवसमास के १४ भेद
'बादरहमे इंदिय-वितिचउरिषिय अस सिणी य । पज्जत्तापज्जत्ता एवं ते चोदसा होंति ॥७२॥
"
. जीवसमास / ११६
गाथार्थ - बादरए केन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय, श्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, इन सात के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से (७ x २ = ) १४ जीवसमास होते हैं || ७२ ||
विशेषार्थ - एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं, बादर अर्थात् स्थूल और दूसरे सूक्ष्म । एकेन्द्रिय जीवों में पांचों स्थावर गभित हो जाते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तीनों विकलत्रय जीव नस होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव भी संज्ञी व प्रसंज्ञी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। ये पंचेन्द्रिय जीव भी त्रस ही होते हैं । स जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते, इस कारण बादर व सूक्ष्म की पेक्षा द्वीन्द्रियादि के सूक्ष्म व बादर ये दो भेद नहीं होते । इस प्रकार बादर व सूक्ष्म की अपेक्षा एकेन्द्रियों के दो, संज्ञी असंज्ञी की अपेक्षा पंचेन्द्रिय के दो तथा विकलत्रय के तीन ये सब ( २+२+३) सात भेद पर्याप्त पर्याप्त होते हैं, अतः सात को दो से गुरगा करने पर चौदह जीवसमास होते हैं । वे इस प्रकार हैं
१. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय अनन्तजीव, २. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय अनन्तजीव ३. पर्याप्तसूक्ष्मएकेन्द्रिय-अनन्तजीव, ४. अपर्याप्त सूक्ष्मए केन्द्रिय अनन्तजीव, ५. बादर पर्याप्त हीन्द्रिय संस्थातजीव, ६. बादर अपर्याप्त द्वीन्द्रिय असंख्यातजीव ७. बादर पर्याप्त त्रीन्द्रिय असंख्यातजीव, म. बादर अपर्याप्तत्रीन्द्रिय संख्यातजीव ६ बादरपर्याप्तिचतुरिन्द्रिय असंख्यातजीव, १०. बादर अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय असंख्यात जीव, ११. संजीपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्यात जीव. १२. संज्ञी अपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्यातजीव, १३. असंजीपर्याप्तपंचेन्द्रिय प्रसंख्यातजीव, और १४. असंज्ञी अपर्याप्त पंचेन्द्रिय• असंख्यात जीव | इस प्रकार संक्षेप से ये चौदह जीवसमास होते हैं ।
उन्नीस तथा ५७ जीवसमास
भू-प्राउ-उ-बाऊ पिञ्चच दुग्गविगि गोदथूलिवरा ।
पत्तेयपदिद्विवरा तसपरण पुण्णा पुण्णवुगा ॥७३॥
गाथा - पृथ्वी कायिक, अप् (जल) कायिक, तेजकायिक, वायुंकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक के दो भेद नित्यनिगोद व चतुर्गतिनिगोद इन छह भेदों में प्रत्येक के स्थूल (बादर) व इतर (सूक्ष्म) दो-दो भेद इस प्रकार बारह प्रत्येक वनस्पति के दो भेद संप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित ये दो मिलकर स्थावर के चौदह भेद, इनमें त्रस के पाँच भेद मिलाने से ( १४ + ५) १६ भेद हो जाते हैं । - प्रत्येक के पर्याप्त व दो प्रकार के अपर्याप्त ( २ + १) ये तीन भेद करने से ( १६ x ३ ) ५७ जीवसमास हो जाते हैं ।। ७३ ।।
विशेषार्थ - भू- कायिक अर्थात् पृथ्वी कायिक, श्राजकायिक अर्थात् जलकायिक, ते कायिक अर्थात
१. प्रा. पं. सं. १/३४ |