Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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११८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ७१ विशेषार्थ-- यद्यपि जीव बहुत हैं और बहुत प्रकार के हैं (जैसे पृथ्वी, रेत, पत्थर प्रादि तथा जल, प्रोस, बर्फ प्रादि; तेज हवा, अांधी, मन्द ह्वा आदि ; दावानल, बड़वानल, ज्वाला आदि अग्नि; वृक्ष, घास, पौधा आदि वनस्पति) तथापि इन सबके एक स्पर्शन-इन्द्रिय है। इस सदृशधर्म की अपेक्षा ये सब अनन्तानन्त जीव एकन्द्रिय जाति में गांभित हो जाते हैं। विवक्षित सामान्यधर्म के द्वारा जो लक्षित किये जायें या जाने जायें वे सब जीव एकजाति में अन्तर्भूत होते हैं। जीवसमास में उन जातियों का संग्रह किया जाता है। उस जाति का जिसमें संग्रह किया जाय, वह जीवसमास है।
उत्पत्ति के कारण की अपेक्षा जीवसमास का लक्षण तसचदुजुगारणमज्झ, अविरुद्ध हि जुबजाविकम्मुदये ।
जीवसमासा होति ह तभवसारिच्छसामणा ॥७१।। गाथार्थ - अस प्रादि चार युगलों के मध्य अविरुद्धकर्मप्रकृतियों से युक्त जातिनामकर्मोदय होने पर जो तद्भवसादृश्यसामान्य है, वह जीवसमास है ॥७१।।
विशेषार्थ-नामकर्म को स-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त व प्रत्येक साधारण इन आठ प्रकृतियों के मध्य स-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक अथवा त्रस-बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक; ये परस्पर अविरुद्धप्रकृतियाँ हैं। श्रस के साथ स्थावर-सूक्ष्म-साधारण इन तीन का विरोध है । स्थावर के साथ अस का विरोध है, शेष छह प्रकृतियाँ अविरुद्ध हैं, किन्तु सूक्ष्म व बादर परस्पर में विरुद्ध हैं। इसी प्रकार शेष दो युगलों की प्रकृतियाँ भी परस्पर विरुद्ध हैं। एकेन्द्रियादि जाति नामकर्म की पांच प्रकृतियों में से किसी एक जाति-नामकर्मोदय के साथ यथासम्भव इन पाठप्रकृतियों में से चार अविरुद्ध मिल जाने पर जो तद्भव (तेषु भर्व विद्यमानं तद्भवं) अर्थात् उनमें विद्यमान जो सादृश्यसामान्य है, वह जीवसमास है। जैसे एकेन्द्रिय जाति-नामकर्मोदय के साथ पृथिवी स्थावरकाय-बादर-पर्याप्तप्रत्येकणरीर मिलाने से इसमें और एकेन्द्रियजाति-नामकर्मोदय के साथ जलस्थावरकाय बादर-पर्याप्तप्रत्येकशरीर मिला देने पर इसमें अर्थात् इन दोनों में एकेन्द्रियजाति, स्थावर, बादर, पर्याप्त व प्रत्येक सादृश्यसामान्य है अतः इन दोनों का बादर-एकेन्द्रियपर्याप्त यह एक जीवसमास है। सादृश्यसामान्य को तिर्यक्सामान्य भी कहते हैं। जैसे एक काली गाय, दूसरी गौरी गाय ; इन दोनों में गो-पना सादृश्यसामान्य है। अर्थान्तरों में अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थों में जो सदृशपरिणाम होता है वह सादृश्यसामान्य अथवा तिर्यक्सामान्य है ।' कहा भी है ।।
"सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत्॥४॥" [परोक्षामुख : चतुर्थ समुद्देश]
-~-सदश अर्थात् सामान्य परिणाम तिर्यक्सामान्य है । जैसे खण्डी-मुण्डी श्रादि गायों में गोपना समानरूप से रहता है ।।४।।
इस गाथा में सूचित किया गया है कि बादर व सूक्ष्म तथा पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्मोदय के कारण जीवसमास में भेद हो जाते हैं।
१. मन्दप्रबोधिनी टीका के प्राधार से ।