Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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११६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६
जिस मोक्ष में स्वगुण का नाश होता हो, ऐसे अनिष्ट फलवाले मोक्ष के लिए तत्त्ववेत्ता का तप और योगादिरूप प्रयत्न प्रयुक्त है । अर्थात् तत्त्ववेत्ता ऐसे अनिष्ट फलवाले मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करते । मोक्ष में स्वाभाविक गुरणों का नाश नहीं होता, अपितु स्वाभाविक गुण विद्यमान हो जाते हैं।
ईश्वरवादी परमात्मा को सदा मुक्त मानते हुए भी उसको सृष्टि का कर्ता मानते हैं । उनका निराकरण करने के लिए किवकिच्चा' विशेषण दिया है अर्थात परमात्मा कृतकृत्य हैं, ऐसा कहा गया है । त्रिकालगोच र अर्थात् अनादिनिधन अनन्तद्रव्य और उनके गुरण व पर्याय रूप लोकालोक सव को जानते व देखते हुए भी तथा अनन्तसुखामृत का अनुभवन करते हुए भी तथा अनन्तवीर्य होते हुए भी समस्त कल्मषता का नाश कर देने से विशुद्ध स्वभाववाले सिद्धपरमेष्ठी परमात्मा लोकशिखर पर प्रकाशमान हो रहे हैं, जैसे निर्मल रत्न का दर्पण प्रकाशमान होता है । प्रयोजन के अभाव के कारण तथा कर्मनिर्जरा और तत्सम्बन्धी अनुष्ठान कर त्रुकने के कारण परमात्मा बाह्य कार्य कुछ भी नहीं करते । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप जगमावि तो वा निमित्कार पालय के प्राश्रय से स्वत: हो रहा है। विचारशील चतुर पुरुषों को, 'परमात्मा सृष्टिकर्ता है' यह कथन अयुक्त ही प्रतिभासित होता है। तर्कशास्त्रों में भी ईश्वरसृष्टिकर्तृत्व का अर्थात् जगत्सृष्टिवाद का बहुधा निराकरण किया गया है: उन तर्कशास्त्रों से भी समर्थन होता है। अतः ईश्वर जगत्सृष्टि का कर्ता नहीं है ।
मंडलि-वार्शनिकों का मत है कि परमात्मा का ऊर्ध्वगमनस्वभाव है और उसमें कछ भी रुकावट न होने से परमात्मा ऊपर चले जा रहे हैं ।' उसका निराकरण करने के लिए 'लोयग्गरिगवासिगो' अर्थात् 'लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले' ऐसा विशेषरा दिया है । जीव और पुद्गलों के गमन में सहकारी कारण धर्मद्रव्य है । वह धर्मास्तिकाय जितने क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है उतने ही क्षेत्र में जीव और पुद्गलों का गमन होता है, उससे बाह्मक्षेत्र में गमन का अभाव है। लोक भी उतना ही है । गमन की निवृत्तिरूप स्थिति का हेतु अधर्मास्तिकाय भी उतने ही क्षेत्र में ठहरा हुआ है । इसलिए सकलकर्म से रहित सिद्धपरमेष्ठी परमात्मा ऊर्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग पर्यन्त ऊपर जाकर वहीं पर ठहर जाते हैं, क्योंकि गमन में बहिरंग सहकारीकारण धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकाग्र से आगे नहीं जाते । अन्यथा सहकारी कारण धर्मास्तिकाय के प्रभाव में भी और सर्वगत सर्व आकाश के सहकारीकारण होने पर सर्वजीव-पुदगलों का सर्वश्रआकाश को व्याप्त करके गमनागमन का प्रसंग आ जाने से लोक और अलोक के विभाग का अभाव दुनिवार हो जाएगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि लोक और अलोक का विभाग सर्वसम्मत है । इस प्रकार परमात्मा के लोकाग्रनिवास सिद्ध हो जाता है।'
शंका--सिद्धों और अरिहन्तों में क्या भेद है ?
समाधान --आठकों को नष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं और चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरिहन्त होते हैं । यही उन दोनों में भेद है ।
शंका-चार घातियाकर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहन्तों की आत्मा के.समस्त गुण प्रकट हो जाते हैं इसलिए सिद्ध और अरिहन्त परमेष्ठी में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ?
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र सूरि को टीका के आधार से यह विशेषार्थ लिखा है।