Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६६
गुणस्थान / ११५
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बँधा हुआ होता है उसी के लिए 'मुक्त' पद का व्यवहार होता है । जैसे सकिल से बंधे हुए चोर के लिए 'मुक्त' शब्द का व्यवहार होता है। अबद्ध होने से प्राकाशादि के लिए 'मुक्त' शब्द का व्यवहार नहीं होता। इससे सिद्ध हो जाता है कि बन्धपूर्वक ही मोक्ष होता है । प्रात्मा अनादिकाल से कर्मों से बँधी हुई हैं, उन कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष होता है । यह आगम में प्रसिद्ध है । मिथ्यादर्शनादि से बन्ध होता है। सम्यग्दर्शनादि श्रर्थात् सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र से मोक्ष होता है, इसका तर्कशास्त्र से समर्थन होता है ।
सांख्य मत मानता है कि प्रकृति को ही बन्ध-मोक्ष व सुख-दुःख होता है. आत्मा को बन्ध-मोक्ष व सुख-दुःख नहीं होता । उसको दूषण देने के लिए 'सोदोमूदा' अर्थात् 'शान्तिमय हो गये' सिद्धों का यह विशेषण दिया गया है। आत्मा ही मिथ्यादर्शनादि भावरूप परिणत होती है और उसके कारण कर्मबन्ध होता है जिसका फल दुःखरूप भवाताप है । सम्यग्दर्शनादि परिणत आत्मा को मोक्ष होता है और उसका फल सुखरूप शान्तिभाव है। इससे सिद्ध है कि श्रात्मा को ही बन्ध - मोक्ष व सुख-दुःख होता है। प्रकृति (प्रधान) प्रचेतन है, उसको सुख-दुःख का अनुभव नहीं हो सकता ।
Reet का सिद्धान्त है कि मुक्तजीव के भी पुनः कर्मरूप प्रञ्जन का संश्लेष सम्बन्ध होने से - वे भी पुनः संसारी हो जाते हैं, क्योंकि सब जीवों के मुक्त हो जाने पर संसार के प्रभाव का प्रसंग आ जायेगा इसलिए मस्करी ने यह सिद्धान्त बनाया कि मुक्तजीव भी पुनः कर्मों से बँधकर संसारी हो जाते है जिससे संसारोजीव हमेशा पाये जाते हैं । अतः मस्करीमत का निराकरण करने के लिए सिद्धों का 'मिरजण' विशेषरण दिया गया है । समस्त भावकर्म द्रव्यकर्म से पूर्णरूप से मुक्त हो जाने के कारण विशुद्धस्वभाववाले के बन्ध के कारण मिथ्यादर्शनादि भावकर्म का प्रभाव है इसलिये भावकर्म का कार्यभूत बन्ध सम्भव है, अन्यथा मोक्ष निर्हेतुक हो जायेगा और संसार के अभाव का प्रसंग श्रा जायेगा । संसार में अनन्तानन्तजीव हैं, अनन्तकाल तक मुक्त होते रहने पर भी संसारी जीवों का अभाव नहीं होगा । प्रायरहित और व्ययसहित होने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह अनन्त है ।
मतवाले मानते हैं कि 'ज्ञान-संतान का प्रभाव मोक्ष है इसका निराकरण करने के लिए freear' प्रर्थात् नित्य विशेषरण दिया है। मोक्ष तो उपादेय है और उसके लिए तप व योग आदि : प्रयत्न किया जाता है। यदि ज्ञानसंतान क्षयरूप मोक्ष हो तो ऐसे मोक्ष के लिए कोई भी प्रयत्न नहीं करेगा, क्योंकि अनिष्ट फल के लिए प्रयत्न करना अशक्य है । लोक में प्रसिद्ध है कि बुद्धिमान पुरुष कभी अपने हित के लिए प्रवृत्ति नहीं करता । सभी पुरुष अपूर्वलाभ के लिए प्रयत्न करते हैं न कि मूल- विनाश के लिए। जीवादि सब द्रव्य श्रनादिनिधन हैं, इसका समर्थन तर्कशास्त्र से भी होता है । NOTHING IS CREATED NOTHING IS DESTROYED अतः द्रव्यार्थिकनय से जीव द्रव्य नित्य है । वौद्धों का द्रव्यों को क्षणिक मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध भी है ।
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नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिकों का मत है कि "बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, तथा संस्कार, श्रात्मा के इन नौ विशेषगुणों की अत्यन्त व्युच्छित्ति (नाश ) मुक्ति है 1 उनका निराकरण करने के लिए 'अट्टगुणा' विशेषण दिया गया है। परमात्मा के स्वाभाविक केवलज्ञानादि गुण हैं। गुणों का नाम होने पर उन गुणों से अभिन्न स्वरूप द्रव्य के नाश का प्रसङ्ग प्राप्त हो जायेगा । मुक्ति में ज्ञानादि गुणों का प्रभाव मानने पर परमात्मा के अचेतनत्व का प्रसङ्ग मा जाएगा, जैसेज्ञानगुण के प्रभाव से आकाशादिक अचेतन हैं। चेतना का स्व और पर संवेदन (जानना) स्वभाव है ।