Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गार्थ ७०
जीवसमास/९१७ समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि अरिहन्तों के अधातिया कर्मों का उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते हैं, अतएव इन दोनों परमेष्ठियों में गुरराकृत भेद भी है।
शा-वे अघातियाकर्म शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा अर्ध-जले हो जाने के कारण उदय और सत्त्वरूप से विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं ?
समाधान—ऐसा भी नहीं है, क्योंकि शरीर के पतन का अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता है, अतः अरिहन्तों के आयु आदि शेष कर्मों के उदय और सत्त्व की सिद्धि हो जाती हैं।
शा-कर्मों का कार्य तो चौरासीलाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है । वह अघातिया कर्मों के रहने पर भी अरिहन्त परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है तथा प्रघातिया कर्म प्रात्मा के मुरणों का घात करने में असमर्थ भी हैं । इसलिए अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठी में गुणकृत भेद मानना ठीक नहीं है।
समाधान --ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव के प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय और सुख गुण के प्रतिबन्धक वेदनीयकर्म का उदय अरिहन्तों के पाया जाता है, इसलिए अरिहत्तों और सिद्धों में गुणकृत भेद है ।
शा-ऊर्ध्वगमन आत्मा का गुण नहीं है, क्योंकि उसको आत्मा का गुण मान लेने पर इसके प्रभाव में प्रात्मा का भी प्रभाव मानना पड़ेगा। इसी कारण सुख भी प्रात्मा का गुण नहीं है। दूसरे, वेदनीय कर्मोदय केवलियों में दुःख उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवलीपना नहीं रहेगा।
समाधान–यदि ऐसा है तो रहो, क्योंकि वह न्यायसंगत है। फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व को अपेक्षा और देशभेद की अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है ।'
इस प्रकार गोम्मटसार जीवकाण्ड में गुणस्थान प्ररूपणा नामक प्रथम अधिकार पूर्ण हुमा ।
२. जीवसमास-प्ररूपरणा
जीवसमास का निरुक्तिपूर्वक सामान्य लक्षण 'जेहि प्रणेया जीवा, पज्जते बहुविहा वि तज्जादी ।
ते पुरण संगहिदत्था, जीवसमासा ति विष्णेया ॥७॥ गाथार्य-जिन धर्मविशेषों के द्वारा नाना जीव और उनकी नानाप्रकार की जातियाँ जानी जाती हैं, जातियों का संग्रह करने वाले ऐसे उन धर्मों को जीवसमास कहते हैं ।।७।।
१. धदल पु. १ पृ. ४७-४८।
२. प्रा.पं.सं.गा. १/३२ ।