Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाचा ६८
गुणस्थान/११३
प्रकट होते हैं। यहाँ प्रष्ट कर्मों के क्षय से प्राठगुण कहे गये हैं, तथापि सिद्धों में अनन्तगुण हैं। जैसे चारित्रमोह के क्षय से क्षायिक चारित्र, अकषाय, अवेद, वीतराग आदि गुण भी सिखों में हैं किन्तु उन 'गुणों का इन पाठगुणों में अन्तर्भाव हो जाता है ।
छठा विशेषण किचकिच्चा' है । प्रयोगकेवली के जब तक चरमनिषेक का अन्तिमशुक्लध्यान के द्वारा क्षय नहीं हुआ तब तक वे कृतकृत्य नहीं हुए, क्योंकि उनको उदयस्वरूप कर्मों का क्षय करना था। समस्त कर्मों का पूर्णरूप से क्षय हो जाने पर मोक्ष अर्थात् सिद्धावस्था प्राप्त हो जाने से सिद्धभगवान को अब कुछ करना शेष नहीं रहा । केवलज्ञान-दर्शनादिरूप परिणाम स्वाभाविक हैं, कृत्य नहीं हैं । सातवाँ विशेषण 'लोयग्गणिवासिणों' है। यद्यपि अनन्तानन्तप्रदेशी आकाशद्रव्य एक है तथापि धर्मास्तिकाय के कारण उसका लोकाकाश और अलोकाकाशरूप विभाजन हो गया, क्योंकि गमन में सहकारी कारण धर्म द्रव्य के अभाव में जीव व पुद्गल द्रव्य धर्मद्रव्य से आगे नहीं जा सकते। कहा भी है--
लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च जाण हेहि । आइ नहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारो॥१३४॥ [नयचर] जादो प्रलोगलोगो जेसि सम्भावावो य गमण-ठिकी।
नो डि य मरस विभता अनिता लोयमेना य॥ [पंचास्तिकाय] श्री अमृतचन्द्राचार्य कृस टीका-"धर्माधमो विद्यते लोकालोक-विभागान्यथानुपपतः।" यदि धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य न हो तो लोकाकाश व अलोकाकाश का विभाग नहीं हो सकता था । धर्मास्तिकाय से विभाजित आकाशद्रव्य के लोकाकाश क्षेत्र के अग्र अर्थात् उपरितन तनुवातवलय के अन्तिमभाग में सिद्धभगवान स्थित हैं । यद्यपि आत्मा का ऊर्ध्वगमनस्वभाव है और अनन्तवीर्य है तथापि वह सहकारीकारण धर्मास्तिकाय को अपेक्षा रखता है । सहकारीकारण के सन्निधान में ही प्रात्मा का गतिपरिणाम सम्भव है । गति में कारणभूत धर्मास्तिकाय के अभाव में तनुवातबलय से पागे सिद्ध भगवान का गमन नहीं होता, अतः दे लोक के ऊपर तनुपातवलय में स्थित हो जाते हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में कहा है--
प्रागासं अवगासं गमरणदिदिकारणेहि देवि जदि । उड्डंगविप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ॥१२॥ जा उरिटाणं सिद्धाणं जिणवरेंहि पणत ।
तहमा गमणवारणं प्रायासे जाण गस्थित्ति ॥१३॥ श्री अमृतवाचार्यकृत टीका--"सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवन्तः सिद्धाबहिरङ्गान्तरङ्गसाधनसामग्र्यां सत्यामपि फुतस्तत्राकाशे तिष्ठन्ति इति । यसो गत्या भगवन्तः सिद्धाः लोकोपर्यवसिष्ठन्ते ततो गतिस्थिसिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति निश्चेतव्यम् । लोकालोकावच्छेवको धर्माधर्मावेब गतिस्थितिहेतु मंतव्याविति ।"
इन गाथाओं से व टीका से यह स्पष्ट है कि अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों कारणों के मिलने पर गति होती है। श्री सिद्धभगवान सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से परिणत हैं, किन्तु बहिरङ्गकारण धर्मद्रव्य के प्रभाव में लोक के ऊपर अग्रभाग में ठहर जाते हैं, क्योंकि उससे अागे गमन नहीं