Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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११२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६८
गाथार्थ--जो पाठप्रकार के कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरञ्जन हैं, नित्य हैं, आठगुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध भगवान हैं ।।६८।।
विशेषार्थ-सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्ध-साध्य ये एकार्थवाची नाम हैं।' मुक्तजीव सिद्ध होते हैं। वे सिद्ध भगवान, ज्ञानावरण-दर्शनावरणा-वेदनीय-मोहनीय-आयु-नाम-गोत्र और अन्तराय इन मूल प्रकृतिरूप पाठकों का क्षय कर देने से अष्टविध कर्मरहित हैं। इन पाठकर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं और उत्तरोत्तर प्रकृतियां असंख्यात हैं, अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा अनन्त हैं । इन सब प्रकृतियों-सम्बन्धी स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के बन्ध-उदय-सत्त्व आदिका सम्पूर्ण रूप से क्षय कर देने से इन कर्मों से 'वियला' विगत अथवा प्रच्युत हैं । अथवा सिद्धभगवान द्रव्यकर्मभाबकर्म और नोकर्म ऐसे तीन प्रकार के कर्ममल से रहित हैं ।
दुसरा विशेषरण है "सोवीमूदा" पूर्व संसारावस्था में जन्म-मरणादि भवदुःखों से तथा रागद्वेष-मोहरूप दुःखों के ताप से तप्तायमान अशान्त थे । मोक्षावस्था में भवभ्रमण दुःखताप का, रागद्वेषताप का अभाव हो जाने से और आत्मोत्पन्न अनन्त सुखामृत का पान करने से 'सीदीभूदा' अर्थात् अत्यन्त शान्त हो गये हैं । तृतीय विशेषण है 'रिणरंजणा' अजन अर्थात् कज्जल, कालिमा । यह जिस प्रकार पदार्थ के स्वरूप को मलिन कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म विशुद्ध अात्मस्वभावअनन्तज्ञानादि की' मलिनता के कारण होने से कर्म अजन हैं । इन कर्मों को निष्क्रान्त कर देने से सिद्धभगवान निरंजन हैं । बन्ध के हेतु मिथ्यादर्शन, अबिरति, प्रमाद, कषाय का नाश हो जाने से
और नवीनकर्म के पास हेतु योग निरोध हो जाने से भी जिवान निरंजन हैं। चतुर्थ विशेषण 'णिच्चा' अर्थात् नित्य हैं । यद्यपि सिद्धों में प्रतिसमय काल के निमित्त से अगुरुलघगण के द्वारा स्वाभाविक अर्थपर्यायरूप उत्पाद-व्यय होता रहता है, तथापि अनन्तज्ञानादि विशुद्ध चैतन्य की अपेक्षा और सामान्य द्रव्य-आकार की अपेक्षा सिद्ध भगवान नित्य हैं अर्थात् अपने शुद्धस्वभाव व द्रव्याकार से कभी विचलित नहीं होते।
पंचम विशेषण 'अद्वगुणा' है। अष्टकर्मों के क्षय होने से सिद्धों में क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकवीर्य, सूक्ष्मत्व (अमूर्तिकत्व), अवगाहनत्व, स्वाभाविक अगुरुलधु, अव्याबाध ये पाठगुण उत्पन्न हो जाते हैं । कहा भी है
मोहो खाइयसम्मं केवलणाणं च केवलालोयं । हणवि प्रावरणवुगं अणंतविरियं णेवि विग्धं तु । सुहमं च णामकम्म हदि प्राऊ हणेवि अवगहणं । अगुरुलहुगं गोवं अन्वावाहं हणेइ वेयणियं ॥
[गो.जी. कन्नड़ी टीका ६८] मोहनीयकर्म के क्षय से (१)क्षायिकसम्यक्त्व, ज्ञानाबरण-दर्शनावरण इन दो आवरणको के नाम से क्रमश: (२) केवलज्ञान और (३) केवल दर्शन, अन्तरायकम के विनाश से (४) अनन्तवीर्य, नामकर्म के नाश से (५) सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व), आयुकर्म के नाश से (६) अवगाहनत्व, गोत्रकर्म के नाश से (७)अगुरुलघुत्व और वेदनीयकर्म के नाण से ( ) अव्याबाधत्व ये पाठगुण सिद्धों में
१. घ. पु. १ पृ. २००।