Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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११०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६६-६७
दर्शनमोहनीय का क्षय करने वालो की दोनों प्रकार की गुणश्रेणियों के उत्कृष्ट गुणकार की अपेक्षा कषायों का उपशम करने वाले का जघन्य गुणकार असंख्यातगुणा है। दर्शनमोहनीय क्षपक के गुणश्रेणिगुणता नो अपूर्णगरमशागतः डा गुपाणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।
शंका---इस प्रकार त्रारित्रमोहक्षपकों के भी पृथक्-पृथक् गुणकार के अल्पवहुत्व की प्ररूपणा करने पर गुणश्रेणिनिर्जरा म्यारह प्रकार की न रहकर पन्द्रह प्रकार की हो जाती है ?
समाधान--गुणश्रेणिनिर्जरा पन्द्रह प्रकार की नहीं होती, क्योंकि नैगमनय का अवलम्बन करने पर तीन उपशामकों और तीन क्षपकों के एकत्व की विवक्षा होने पर ग्यारह प्रकार की गुणश्रेणिनिर्जरा बन जाती है।
'उससे उपशान्तकषायवोतरागछास्थ का गुणधेरिणगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१८१॥'
यहाँ मोहनोयकर्म को छोड़कर शेषकर्मों को दोनों गुणश्रेणियों के गुणकार सम्बन्धी अल्पवद्दुत्व की प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि यहाँ उपशम भाव को प्राप्त मोहनीयकर्म की निर्जरा सम्भव नहीं है।
'उससे कषायक्षपक का गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।। १८२ ॥'
उपशान्त कषाय की दोनों गुणधेणियों सम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकार को अपेक्षा द्रव्याथिकनय से अभेद को प्राप्त हुए तीनों क्षपकों का जघन्य भी गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ।
'उससे क्षोणकषायवीतरागछपस्थ का गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१८३॥'
मोहनीयकर्म के बन्ध, उदय व सत्त्र का प्रभाव हो जाने से कमनिर्जरा की शक्ति अनन्तगुणी नृद्धिंगत हो जाती है।
'उससे अधःप्रवृस [स्वस्थान] केवली संयत का गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१४॥'
धातियाकर्मों के क्षीण हो जाने से कर्मनिर्जरा का परिणाम अनन्तगुणीवृद्धि को प्राप्त हो जाता है।
'उससे योगनिरोधकेवली संयत का गुणवेरिणगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१५॥' क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
अब तश्विरीया काला संखेज्जगुणक्कमा होति' गाथासूत्र के इस पद का विशेष कथन किया जाता है
'योगनिरोधकेवली संयत का गुणधेणिकाल सबसे स्तोक है ॥१८६॥'
योगनिरोध करने वाले सयोगकेवली प्रायु को छोड़कर शेष कर्मों के प्रदेशों का अपकर्षण कर १. घ. पु. १२ पृ. ८३ । २. ध. पु. १२ पृ. ४ ।