Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माया ६६-६७
गुणस्थान / १०६
समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ सम्यक्त्वपरिणाम को प्रधानता नहीं दी गई है । अथवा संयम वही है जो सम्यक्त्व का अविनाभावी है अन्य नहीं, क्योंकि अन्य में गुणश्रेणिनिर्जरारूप कार्य नहीं उपलब्ध होता । इसलिए संयम के ग्रहण करने से ही सम्यक्त्वसहित संयम की सिद्धि हो जाती है ।"
'उससे अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले का गुणश्रेणिगुरपकार प्रसंख्यातगुणा
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स्वस्थानसंयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकार की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवों में अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले का जघन्य गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है। यहाँ सब जगह गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा कहने पर गलमान (निर्जीणें होने वाले) प्रदेशों का गुणश्रेणिगुणकार और निसिचमान ( निक्षिप्त किये जाने वाले ) प्रदेशों का गुणश्रेणिगुणकार ग्रहण करना चाहिए ।
शङ्का - यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान - यह गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा सामान्य निर्देश करने से जाना जाता है।
शङ्का--संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले असंयतसम्यग्दृष्टि का परिणाम ( विशुद्धि की अपेक्षा ) अनन्तगुणाहीन होता है। ऐसी अवस्था में उससे असंख्यातगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संयमरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कवायों की बिसंयोजना में कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे ( विशुद्ध ) उपलब्ध होते हैं ।
शङ्का -- यदि सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायों की बिसंयोजना होती है। तो सभी सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है ?
समाधान -- सर्व सम्यग्दृष्टियों में अनन्तानुबन्धी की त्रिसंयोजना का प्रसंग नहीं या सकता, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तातुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गई है।
'उससे दर्शनमोह का क्षय करने वाले जीव का गुणश्रेणिगुणकार प्रसंख्यातगुणा है ।। १७६ ।।'
अनन्तानुबन्धो की विसंयोजना करने वाले जीव के दोनों गुणश्रेणिसम्बन्धी उत्कृष्ट गुणकार की अपेक्षा दर्शनमोह का क्षय करने वाले जीव के दोनों प्रकार (गलमान और नित्रिमान प्रदेशों ) की गुणश्रेणियों का जघन्य गुणकार प्रसंख्यातगुणा है । अतीत अनागत और वर्तमान प्रदेशगुणश्रेणिगुणकार पल्योपम के प्रसंख्यातत्रं भागप्रमाण जानना चाहिए ।
'उससे कषायोपशासक का गुरगुरणकार प्रसंख्यातगुणा है ।।१८०॥
१. ध. पु. १२ पृ. ८१ २ . पु. १२ पृ. ८२३