Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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१०८ / गो. सा जीवकाण्ड
के द्वारा ग्यारह प्रकार की प्रदेशगुणश्रेणी निर्जंग की प्ररूपणा की गई है ।"
'तव्ववदोकालो' परन्तु इनका गुणश्रेणिनिक्षेप अध्वान उससे विपरीत है, अर्थात् श्रागे से पीछे की ओर वृद्धिगत होकर जाता है। पूर्व के समान असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से प्राप्त वृद्धि का प्रतिषेध करने के लिए 'संखेज्जगुरणवकमा' अर्थात् संख्यातगुणितक्रम है, ऐसा कहा है। इसका विशेष कथन इस प्रकार है -
गाथा ६६-६७
' दर्शनमोह का उपशम करने वाले का गुणश्रेणिगुणकार सबसे स्तोक है ।। १७५ ।
'गुण' शब्द का अर्थ गुणकार है तथा उसकी श्रेणी, श्रावली या पंक्ति का नाम गुणश्रेणी है । मोहनीय का उपशम करने वाले के प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य स्लोक है । द्वितीयसमय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य उससे श्रसंख्यातगुणा है। उससे तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य असंख्यातगुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह के उपशमक के अन्तिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणी है। गुणश्रेणी का गुण गुणश्रेणिगुणकार कहलाता है । इसका भावार्थ यह है कि "सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जो गुणश्रेणिगुणकार सर्वोत्कृष्ट है वह भी आगे कहे जाने वाले गुरणकार की अपेक्षा स्तोक है । ३
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"उससे संयतासंयत का गुणश्रेणिगुणकार श्रसंख्यातगुणा है ॥ १७६ ॥ । '
संयतासंयत की गुणश्रेणी निर्जरा का जो जघन्य गुणाकार है वह पूर्व के उत्कृष्ट गुणकार की अपेक्षा भी असंख्यातगुणा है । "
"उससे अधः प्रवृत्तसंयत का गुणश्रेणिगुणकार प्रसंख्यातगुणा है ।।१७७॥ '
संयतासंयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकार की अपेक्षा स्वस्थानसंयत का जघन्यगुणकार संपतगुणा है ।
शङ्का – यतः संयमासंयम रूप परिणाम की अपेक्षा संयमस्य परिणाम अनन्तगुणा है । अतः संयमासंयम परिरणाम की अपेक्षा संयमपरिणाम द्वारा होने वाली प्रदेशनिर्जरा भी अनन्तगुणो होनी चाहिए, क्योंकि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य की उपलब्धि होती हैं ।
समाधान- नहीं, क्योकि प्रदेशनिर्जरा का गुरणकार योगगुरणकार का अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनन्तगुणे होने में विरोध प्राता है। दूसरे, प्रदेशनिर्जरा में अनन्तगुणत्व स्वीकार करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुणश्रेणिनिर्जरा के दूसरे समय में ही मुक्ति का प्रसङ्ग आएगा। तीसरे कार्य कारण का अनुसरण करता ही हो, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरङ्ग काररण की अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्य के बहिरंग कारण के अनुसरण करने का नियम नहीं बन सकता |
शंका-सम्यक्त्वसहित संयम और संप्रमासंयम से होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा सम्यक्त्व के विना संयम और संयमासंयम से होती है, यह कैसे कहा जा सकता है ?
१. घ. पु. १२ पृ. ७९ । २. घ. पु. १२ पृ. ८० । ३. घ. पृ. १२ पृ. ८०