Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६५
गृश
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श्रेणिरूप से निक्षेप करता हया अयोगिकेवली के अन्तिम समय तक जाता है। अब इसी समय में योगनिरोधक्रिया और सयोगिकेवली के काल की समाप्ति होती है । इससे आगे गुणश्रेणि और स्थितिधात तथा अनुभागघात नहीं है । केवल अधःस्थिति के द्वारा असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मनिर्जरा का पालन करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यहीं पर सातावेदनीय के प्रकृतिबन्ध की व्यूच्छित्ति होती है तथा उनतालीस प्रकृतियों की उदीरणान्युच्छित्ति जाननी चाहिए। उसी समय आयु के समान नाम, गोत्र और वेदनीथ कम स्थितिसत्कर्म रूप हो जाते हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिये ग्रामे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं -
योग का निरोध होने पर [स्थिति की अपेक्षा प्रायु के समान कर्म होते हैं ।
केवलिसमृद्घात क्रिया द्वारा तथा योगनिरोध रूप काल के भीतर स्थितिघात और अनुभागघात के द्वारा घात करने से शेष रहे नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म इस समय प्रायुकर्म के समान होकर प्रयोगिकेवली के काल के बराबर उनका स्थितिसत्कर्म हो जाता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार इतने प्ररूपणाप्रबन्ध द्वारा सयोगिकेवली गुणस्थान का पालन करके उस काल के समाप्त होने पर यथावसर प्राप्त प्रयोगिकेवली गुणस्थान को प्राप्त होता है, इस बात का प्रतिपादन करते हुए आगे गाथा कहते हैं---
प्रयोगकेवली गुणम्यान का कथन सोलेसि संपत्तो विरुद्ध पिस्सेस पासवो जीयो ।
कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥६५॥" गाथार्थ-जिसने शील के स्वामित्व को प्राप्त कर लिया है, सम्पूर्ण प्रास्रवों का जिसने निरोध किया है और जो नूतन बध्यमान कर्म रज से भी रहित है, वह गतयोगकेवली यानी प्रयोगकेवली कहलाता है।
विशेषार्थ--
पहला विशेषण है.-सोलेसि संपत्तो अर्थात् जिन्होंने समस्त गुण और शील का अविकल (पूर्ण) स्वरूप से आधिपत्य प्राप्त कर लिया है, वे गोलों के ईश 'जीलेश' कहलाते हैं। शीलेश का भाव शैलेश्य है।
शा-- यदि शैलेशय का यह अर्थ है, तो इस विशेषण का चौदहवें गुणस्थान में प्रारम्भ नहीं होना चाहिए था, क्योंकि अरिहन्त परमेष्ठी भगवान ने सयोगकेवली अवस्था में भी सकल गुण-शील के आधिपत्य को अविकल स्वरूप से प्राप्त कर लिया है, अन्यथा सयोगकेवली को अपरिपूर्ण गुण-गील होने से, परमेष्ठीपना प्राप्त नहीं हो सकता, जसे हमारे गुण व शील पूर्ण न होने से हमें परमेष्ठीपद प्राप्त नहीं है।
समाधान-~-आपका कहना सत्य है, सयोगकेवलो ने भी आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है । वे अशेषगुणों के खजाने हैं, निष्कलंक हैं और परम-उपेक्षा लक्षण बाले यथाख्यात विहारशुद्धि संयम
१. घवल १११६६ पर भी यह गाया है ।