Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१०२ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ६३-६४
भी हानि नहीं है । अथवा चिन्ता का हेतु होने से भूतपूर्वपने की अपेक्षा चिन्ता का नाम योग है, उसके एकाग्रपने से निरोध करना एकाग्रचिन्तानिरोध है । इस प्रकार के व्याख्यान का आश्रय करने से यहाँ ध्यान स्वीकार किया है, इसलिये कोई दोष नहीं है । उस प्रकार कहा भी है-
स्थों का एक वस्तु में प्रन्तर्मुहूर्त काल तक चिन्ता का प्रवस्थान होना ध्यान है, परन्तु केवलीजिनों का योग का निरोध करना हो ध्यान है ।
इसलिए ठीक कहा है कि योग का निरोध करने वाले केवली भगवान् कर्म के ग्रहण की सामर्थ्य का निरन्दय निरोध करने के लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती संज्ञक परर्म शुक्लध्यान ऐसे लक्षण वाले ध्यान को ध्याते हैं । इस प्रकार ध्यान करने वाले परम शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मनिर्जरा का पालन करने वाले तथा स्थितिकाण्डक का और अनुभाग काण्ड का क्रम से पतन करने वाले इस परम ऋषि के योगशक्ति क्रम से हीन होती हुई सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में पूरी तरह से नष्ट होती है। इस प्रकार इस बात के प्रतिपादन करने की इच्छा से आगे के सूत्र को कहते हैं-
कृष्टि वेदकछसयोगिकेवली जीव कृष्टियों के अन्तिम समय में असंत बहुभाग का नाश करता है ।
कृष्टिवेदक के प्रथम समय से लेकर समय-समय में कृष्टियों के असंख्यातवें भाग का असंख्यात गुणी श्रेणिरूप से क्षय करके नाश करता हुआ सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का नाश करता है, क्योंकि उसके बाद योगप्रवृत्ति का प्रत्यन्त उच्छेद देखा जाता है, इस प्रकार यह यहाँ सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है |
ra नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मों के अन्तिम स्थितिकाण्डक को ग्रहण करता हुआ जितना योगिकाल घोष हैं और सब अयागिकाल है । तत्प्रमाण स्थितियों को छोड़कर गुणश्रेणिशीर्षक के साथ उपरि सब स्थितियों को ग्रहण करता है । उसी समय प्रदेशपुंज का अपकर्षण करके उदय में अल्प प्रदेश को देता है, श्रनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंज को देता है । इस प्रकार प्रसंख्यातगुणी श्रेणिरूप से निक्षेप करता हुआ स्थितिकाण्डक की जघन्य स्थिति से अवस्तन ग्रनन्तर स्थिति के प्राप्त होने तक जाता है ।
1
यही गुण शीर्ष हो गया। इस गुणश्रेणिशी से स्थितिकाण्डक की जो जघन्य स्थिति है उसमें प्रसंख्यातगुणा देता है। उससे उपरिम अनन्तर स्थिति से लेकर विशेष होन प्रदेशपुंज का निक्षेप करता हुआ पुरानी गुणश्रेणिशीर्ष तक निक्षेप करता जाता है । पुनः पुराने गुणशीर्ष से लेकर उपरिम अनन्तर स्थिति में असंख्यात गुणहीन प्रदेशपुंज देता है। उससे आगे सर्वत्र विशेषहीन प्रदेशपुज निक्षेप करता है। यहाँ से लेकर गलितशेष गुणश्रेणि हो जाती है । इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डक को द्विचरमफालि हो जाना चाहिए ।"
पुनः अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि के द्रव्य को ग्रहण करके उदय में स्लोक प्रदेशपुंज को देता है । तदनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशपुरंज को देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी
१. जयधवल मूल . २२६१ ।