Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६३-६४
गुणस्थान/१०१
प्राप्त हुई कृष्टियों से दूसरे समय में अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग से सम्बन्ध रखने वाली प्रसंख्यानगुणी कृष्टियों का विनाश करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातमुणी श्रेणिरूप मे यह जीव कृष्टिगत योग का अंदन करता है, क्योंकि प्रत्येक समय में मध्यम कृष्टिरूप से परिणमन करने वाली कृष्टियों की असंख्यातगुणरूप से प्रवृत्ति देखी जाती है ।
शङ्का-प्रथमादि समयों में क्रम से वेदी गई कृष्टियों के जीवप्रदेश द्वितीयादि समयों में अपरिस्पन्दस्वरूप से अयोगी होकर स्थित रहते हैं. ऐसा क्यों नहीं मानते ?
समाधान--नहीं, क्योंकि एक जीव में अक्रम से भयोगरूप और अयोगरूप पर्यायों की प्रवृत्ति होने में विरोध पाता है।
इस तरह प्रतिममय अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियों को असभ्यातगुणी थेणिम्प से मध्यम कृष्टियों के प्रकार से परिणमाकर विनाश करता है, यह सिद्ध हुया । इस प्रकार का अर्थ सूत्र में नहीं है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि 'अन्तिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का नाश करता है' इस प्रकार आगे कहे जाने वाले सूत्र में स्पष्ट रूप से इस अर्थविशेष का सम्बन्ध देखा जाता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टिगत योग का अनुभव करने बाने अतिसूक्ष्म काययोग में विद्यमान सयोगिकेवली के उस अवस्था में ध्यान-परिणाम कैसा होता है ऐसी प्राशंका होने पर निःशंक करने के लिये ग्रागे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं--
तथा सूक्ष्म क्रियारूप अप्रतिपाती ध्यान को ध्याता है।
जिसमें सुक्ष्म क्रियारूप योग हो वह सूक्ष्म क्रियारूप तथा नीचे प्रतिरात नहीं होने से अप्रतिमाति; ऐसे तीसरे शुक्लध्यान को उस अवस्था में ध्याना है. यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
शंका--...इस ध्यान का क्या फल है ?
समाधान-योग के प्रास्रव का अत्यन्त निरोध करना इसका फल है, क्योंकि सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्द का भी यहाँ पर अन्वय के विना निरोध देखा जाता है। कहा भी है--
काययोगी और अद्भुत स्थिति वाले सर्वज्ञ के योगक्रिया का निरोध करने के लिए तीसरा शुक्लध्यान कहा गया है ॥१॥'
शंका--समस्त पदार्थों को विषय करने वाले ध्र व उपयोग से परिणत केबली जिनमें एकाग्र चिन्तानिरोध का होना असम्भव है, ऐसा अभीष्ट है, अत: ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
समाधान--यह कहना सत्य है, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों का साक्षात्कार किया है और जो क्रमरहित उपयोग से परिणत हैं ऐसे सर्वज्ञदेव के एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षण ध्यान नहीं बन सकता, क्योंकि यह अभीष्ट है । किन्तु योग के निरोध मात्र से होने वाले कर्मास्रव के निरोधलक्षण ध्यानफल की प्रवृत्ति को देखकर उस प्रकार के उपचार की कल्पना की है, इसलिये कुच्छ
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१. जयधवल मूल पृ० २२६० ।