Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६३-६४
गुणस्थान /26 यहाँ पर असंख्यातगुणी होन श्रेणिरूप से कृष्टियों को अन्तर्मुहूर्तकाल तक करता है। यह सूत्र सुगम है। असंख्यातगुणीश्रेणिरूप से जीवप्रदेशों को करता है ।
यह सूत्र भी सुगम है। अब यहाँ पर रची जाने वाली कृष्टियों में अधस्तन-अधस्तन कृष्टियों से उपरिम-उपरिम कृष्टियों का कितना गुणकार होता है, ऐसी आशंका का निराकरण करने के लिये ___ श्रागे के सूत्र द्वारा कृष्टियों के गुणकार के प्रमाण का निर्देश करते हैं -
कृष्टिगुणकार पल्योपम के असंख्यातये भाग प्रमाण है ।
उक्त कथन का यह तात्पर्य है-जघन्य कृष्टि के सदृश धनबाली कृष्टियाँ असंख्यात जगप्रतरप्रमाण हैं। वहाँ एक जघन्य कृष्टि के योगसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गणित करने पर एक जीवप्रदेश के आश्रय से जघन्य कृष्टि के अनन्तर उपरिम एक कृष्टि में योगसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसी प्रकार दूरी दि में भी मतिः कृषिष्ट के प्राप्त होने तक गुणकार प्ररूपणा जाननी चाहिए । पुनः एक अन्तिम कृष्टि के योग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर अपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गणा में एक जीवप्रदेश के अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस के आगे जीवप्रदेश प्रागमानुसार अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार एक जीवप्रदेश का आश्रयकर कहा है। अथवा जघन्य कृष्टि को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर दूसरी कृष्टि होती है। इस प्रकार अन्तिम कुष्टि के प्राप्त होने तक यह मुणकार जानना चाहिए। यह गुणकार जब तक सदृश धनवाली कृष्टियाँ हैं उनको देखकर कहा है । पुनः अन्तिम कृष्टि के सदृश धनवाले पूरे अविभागप्रतिच्छेद समुदाय से अपूर्व स्पर्धकों की आदिवर्गणा में सहश धनवाले सब अधिभागप्रतिच्छेदों का समुह असंख्यात गुणहीन होता है ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि उपरिम अविभागप्रतिच्छेद गुणकार से अश्वस्तन जीवप्रदेशगुणकार असंख्यातगुणा देखा जाता है ।'
शा- यहाँ पर गुणकार का प्रमाण क्या है ? समाधान-यहाँ पर गुणकार का प्रमाण जगथेणी के असंख्यातवें भाग है।
शेष कथन जानकर कहना चाहिए । इस प्रकार कृष्टिगुणकार के प्रतिपादन द्वारा कृष्टियों के लक्षण का प्ररूपण करके अब अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकाल के द्वारा रची जाने वाली इन योग सम्बन्धी कृष्टियों के प्रमाण विशेष वा अवधारण करने के लिये आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं
योग सम्बन्धी कृष्टियाँ जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।
क्योंकि, जगश्रेणी के प्रथम वर्गमूल के भी असंख्यातवें भाग प्रमारण इनके जगणी के असंख्यातवें भाग प्रमारण की सिद्धि निर्बाधरूप से उपलब्ध होती है। अब इनका अपुर्व स्पर्धकों से भी
१. अर्थात् चरमकृष्टि में “जीवप्रदेश संग्ख्या ४ अवि. प्रति." रूप गुमानफल से अपूर्वम्पर्धक की प्राधिवगणा में 'एक वर्गणा के जीवप्रदेश र प्रवि. प्रति. प्रत्येक जीवप्रदेश' यह गुणनफल कम है।