Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माथा ६३.६४
गुगास्थान/७
ये सम्पूर्ण अपूर्वस्पर्धक पूर्वस्पर्धकों के भी असंख्याता भाग प्रमाण हैं।
यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि पूर्वस्पर्धकों में पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियाँ सम्भव हैं। उनमें एक गुणहानिस्थान में जितने स्पर्धक हैं उनसे भी ये अपूर्वस्पर्धक
असंख्यातगुणहीन प्रमाण जानने चाहिये ।। पारी :
शङ्का-सूत्र में एसा कथन तो नहीं किया गया है । इसके बिना यह कैरो जाना जाता है ?
समाधान-यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र के अविरुद्ध परम गुरु के सम्प्रदाय के अल से उस प्रकार से अर्थ की सिद्धि में विरोध का अभाव है और व्याख्यान से विशेष का ज्ञान होता है, ऐसा न्याय है ।
___ इस प्रकार इस प्ररूपणा के अनुसार अन्तर्मुहूर्नप्रमाण काल तक अपूर्व स्पर्धकों को करने के । काल का पालन करने वाले जीव के उस काल के अन्तिम समय में अपूर्व स्पर्धकक्रिया समाप्त होती
है। इतनी विशेषता है कि अपूर्व स्पर्धकों की क्रिया के समाप्त होने पर भी पूर्वस्पर्धक सबके सब उसी प्रकार अगस्थित रहते हैं, क्योंकि उनका अभी भी विनाश नहीं हुआ है । यहाँ सर्वत्र स्थितिकाण्डक
और अनुभागकाण्डकों का तथा गुरणश्रेणीनिर्जरा का कथन पहले कहे गये क्रम से ही जानना चाहिए, .बयोंकि सयोगिकेवली के अन्तिम समय तक उन तीनों की प्रवृत्ति होने में प्रतिबन्ध का प्रभाव है । इसके बाद अपूर्व स्पर्धककरणविधि समाप्त हुई। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अपूर्व स्पर्धककरण के काल का पालन कर उसके बाद अन्तर्मुहर्त काल तक पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकों का अपकर्षण करके योगसम्बन्धी कृष्टियों की रचना करने वाले सयोगिकेवली जिन के आगे के प्ररूपणाप्रबन्ध के अनुसार बतलावेंगे
इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियों को करता है ।
पूर्व और अपूर्वस्पर्धकरूप से ईंटों की पंक्ति के प्राकार से स्थित योग का उपसंहार करके सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्डों की रचना करता है, उन्हें कृष्टियों कहते हैं । अविभागप्रतिच्छेदों के आगे क्रमवृद्धि और हानियों का प्रभाव होने के कारण स्पर्धक के लक्षण से कृष्टि के लक्षरण की यहाँ विलक्षणता माननी चाहिए, क्योंकि असंख्यातगुणी वृद्धि और हानि के द्वारा ही कृष्टिगत जीवप्रदेशो में योगशक्ति का अवस्थान देखा जाता है । इस प्रकार की लक्षण बाली कृष्टियों को यह योग का निरोध करने वाला केवली अन्तर्मुहूर्त काल तक करता है । इस प्रकार यहाँ पर यह सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है ! प्रब कृष्टियों के इसी लमरण को स्पष्ट करने के लिए प्रागे के सूत्र का अवतार हुआ है--
अपूर्वस्पर्धकों को प्राविवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण
पूर्वोक्त अपूर्व स्पर्धकों की सबसे मन्द शक्ति से युक्त जो प्रादिवर्गणा है उसके असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है । उससे असंख्यात गुणाहीन अविभागप्रतिच्छेदरूप से योगशक्ति का अपकर्षरण करके उसके असंख्यातवें भाग में स्थापित करता है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ
है. जयघवल मूल पृ. २२८७ ।