Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६५
गुणस्थान/१०५
शा--मोहनीयकर्म के अभाव में भी प्रघातियाकर्म अपना कार्य करते हैं, अन्यथा जीव का मारीर में रुके रहना, प्रात्मा के अमूर्तिक स्वभाव का घात एवं ऊर्ध्वगमन स्वभाव का घात हो नहीं सकता था।
समाधान-यद्यपि अघातिया कर्मोदय से ये कार्य होते हैं. तथापि इन कार्यों के कारण जीव कमरज से लिप्त नहीं होता, क्योंकि कर्मरज से लिप्त करने का कार्य लेश्या' का है। प्रयोगकेवली के लेश्या का अभाव है। कारण के अभाव में उससे होने वाली कार्य भी असम्भव है। दूसरे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व योग कर्मबन्ध के हेतु हैं। प्रयोगकेवली के इन सब हेतुनों का अविकलरूप से नाश हो जाने के कारण भी कर्मबन्ध का अभाव है। यदि अहेतुक बन्ध माना जावे तो मोक्ष के प्रभाव का प्रसंग पा जाएगा।
प्रयोगके वली 'समुच्छिन्न क्रियानिवर्ती अथवा व्युपरतत्रियानिवर्ती नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याते हैं । योग को क्रिया कहते हैं। मन, वचन और काय का सर्व व्यापार समुच्छिन्न अथवा ज्युपरत (नष्ट) हो जाने से यह अन्तिम शुक्ल ध्यान समुच्छिन्न किया है। इस ध्यान से प्रयोगकेवली गिरते नहीं अथवा 'न निवर्तते' लौटते नहीं, ऐसा इस शुक्लध्यान का स्वभाव होने से यह समुच्छिन्नक्रिया निवर्ती शुक्लध्यान है। अलेश्या के सम्बल सहित इस ध्यान का फल कायत्रय (औदारिक, तेजस, फार्मणकाय) के बन्धन से मुक्ति को देखकर 'भगवान ध्यान करते हैं। ऐसा कहा जाता है। पूर्ववत् यहाँ भी उपचार से ध्यान है। केवली के ध्र व-उपयोगरूप परिणति के कारण ध्यान के लक्षणस्वरूप एकाग्रचिन्ता निरोध का अभाव है, अत: केवली के परमार्थ से ध्यान नहीं है । समस्त प्रास्त्रवद्वार का निरोध करने वाले केवली के अपनी प्रात्मा में ही अवस्थान होने का फल सर्व कर्मों की निर्जरा होने से ध्यान की प्रतीति करनी चाहिए । कहा भी है
सुर्य स्यावयोगस्य शेषकर्मच्छिदुसमम् ।
फलमस्याभुतं धाम, परतीर्था दुरासवम् ॥१५॥ -शेषकर्मों को छेदने हेतु प्रयोगकेवली के चतुर्थशुक्लध्यान होता है। यह कठिनाई से प्राप्त होने वाला है. इसका फल अद्भुत मोक्षधाम की प्राप्ति है । यह ध्यान मिथ्यातीर्थ बालों को दुष्प्राप्य
अयोगकेवली गुणस्थान के काल का नाम शलेश्यखा' है। उस काल का प्रमाण पाँच हुस्वाक्षर (अ इ उ ऋल) उच्चारण मात्र है । अयोगकेवली गुणस्थान के द्विचरमसमय में अनुदय रूप वेदनीय
कर्मप्रकृति व देवगति आदि अनुदयरूप ७२ प्रकृतियों का क्षय होता है एवं चरमसमय में उदयरूप । बेदनीयकर्मप्रकृति, मनुष्यायु, मनुष्यगति प्रादि उदयस्वरूप १३ प्रकृतियों का क्षय होता है ।
यद्यपि उदय और अनुदयरूप इन दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों की स्थिति समान है तथापि अनुदयरूप कर्मप्रकृनियों एकसमय पूर्व स्वजाति-उदयप्रकृतिरूप स्तिबुकसंक्रमण द्वारा संक्रमण कर परमुखरूप से उदय में आती हैं। प्रयोगकेवली के चरमसमय तक स्थितिवाली अनुदय प्रकृतियाँ द्विचरमसमय में स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदय प्रकृतिरूप संक्रमण कर जाने के कारण चरमसमय में १. 'सिम्पतीनि लेश्या' प.पु. १ पृ. १४६ । २. "अन्तर्मुहुर्तमलेण्याभावेन भगवत्ययोगिकेवलिनि" (ज.प. मूल पृ. २२६२)। ३. "कारणबिनाश तत्कार्यासम्भवः" | ४. ज. ध, मुल पृ. २२६३ ज. घ. १६/१८५ । ५. ज. ध, मूल पृ. २२६३, ज. घ. पू. १६.१५५-८६ ।
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