Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ६३-६४
गुगास्थान/११
क्योंकि इन चार समुद्घात के समयों में अप्रशस्त कर्मों का प्रतिसमय अपवर्तनाघात अनन्तर कहे गए अनुभागघात के वश से स्पष्टरूप से उपलब्ध होता है।
तथा एक समय वाला स्थितिकाण्डकघात होता है ।
चारों ही समयों में प्रवृत्तमान स्थितियात एक समय के द्वारा हो सम्पन्न हो जाता है, यह अनन्तर ही कह पाये हैं। इसलिए आवजितकरण के अनन्तर इस प्रकार के केवलिसमुद्घात को करके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की अन्तर्मुहूर्त प्रआयामरूप से स्थिति को शेष रखता है। इस प्रकार यह अतिक्रान्त समस्त मुत्रपबन्ध का समुदाय रूप अर्थ है। अब लोकपुरण क्रिया के समाप्त होने पर समुदघातपर्याय का उपसंहार करने वाला केवलो जिन क्या अक्रम से उपसंहार करके स्वस्थान में निपतित होता है या उतरने वाले का कोई क्रमनियम है; ऐसी आशंका के निराकरण के लिए उतरने वाले का सूत्र से सूत्रित होने वाला किंचित् प्ररूपण करगे - १
यथा-लोकपूर-समुद्घात का उपसंहार करता हृया फिर भी मन्थ-समुद्घात को करता है, क्योंकि मन्थरूप परिणाम के बिना केवलिसमद घात का उपसंहार नहीं बन सकता । तथा लोकपरणसमुद्घात का उपसंहार करने के अनन्तर ही समयोग परिणाम को नाश करके सभी पूर्वस्पर्धक समय के अविरोधपूर्वक उद्घाटित हो जाते हैं ऐसा जानना चाहिए । पुनः मन्थसमुद्घात का उपसंहार करता हुआ कपाट-समुद्घात को प्राप्त होता है, क्योंकि कपाट परिणाम के बिना उसका उपसंहार करना नहीं बन सकता । तत्पश्चात् अनन्तर समय में दण्डसमुद्घातरूप से परिणमकर कपाटसमुद्घात का उपसंहार करता है, क्योंकि दण्डसमुद्घात का उसके अनन्तर ही होने का नियम देखा जाता है। उसके बाद तदनन्तर समय में स्वस्थानरूप केवलीपने से दण्डसमुवात का उपसंहार करता है। उस समय न्यूनता और अतिरिक्तता से रहित मूल शरीर के प्रमाण से केवली भगवान् के जीवप्रदेशों के अवस्थान का नियम देखा जाता है। इस प्रकार केवलिसमुद्घात से उतरने वाले केवली जिन के ये तीन समय होते हैं, क्योंकि चौथे समय में स्वस्थान में अन्तर्भाव देखा जाता है। अथवा चौथे समय के साथ केवलिसमुद्घात से उतरने वाले केवली के चार समय लगते हैं, ऐसा किन्हीं प्राचार्यों के व्याख्यान का क्रम है। उनका अभिप्राय है कि जिस समय में स्वस्थान केबलिपने में (यानी मूल शरीर में) ठहरकर दण्डसमुद्घात का उपसंहार करता है वह भी समुद्घात में अन्तर्भूत ही करना चाहिए । समुद्घात में उतरने वाले प्रतरगत केवली जिन के पहले के समान कार्मरणकाययोग होता है । कपाट समुद्घातको प्राप्त केवली के औदारिक-मिथकाययोग होता है, तथा दण्डसमुदवात को प्राप्त केवली के औदारिक काययोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । यहाँ पर उपयुक्त पड़ने वाली प्रार्या गाथाएँ हैं..
केबली जिन के प्रथम समय में दण्डसमुद्घात होता है, उत्तर प्रर्थात् दूसरे समय में कपाटसमुद्घात होता है, तृतीय समय में मन्थान समुद्घात होता है और चौथे समय में लोकव्यापी-समुद्घात होता है ।।१।।
पाँचवें समय में लोकपुरण-समृदयात का उपसंहार करता है, पुनः छठे समय में मत्थानसमुद्घात का उपसंहार करता है, सातवें समय में कपाट समुद्घात का उपसंहार करता है और आठवें
१. जयधवन मूल पृ. १२८१-८२ ।