Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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मामा ६६.६४
गुणस्थान/८६ सुगम होने से यहाँ पर उक्त दोनों मूत्रों में कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । यहाँ पर भी 1 गुणश्रेरिण-प्ररूपणा प्रावजितकर। के समान है । इस प्रकार वलिसमुद्घात की तीसरी अवस्थाविशेष में विद्यमान केवली के स्वरूप का प्ररूपण करने के लिये आगे के सूत्रप्रबन्ध को कहते हैं
तत्पश्चात् तीसरे समय में मन्थ नाम के समुदघात को करता है।
जिसके द्वारा कर्म मथा जाता है उसे मन्य कहते हैं । अघातिकर्मों के स्थिति और अनुभाग के निर्मथन के लिये केवलियों के जीवप्रदेशों की जो अवस्था विशेष होती है, प्रतर संज्ञावाला बह मन्थ समुद्धात है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस अवस्था विशेष में विद्यमान केवली के जीवप्रदेश चारों ही पार्श्वभागों से प्रतराकाररूप से फैलकर सर्वत्र वातवलय के अतिरिक्त पूरे लोकाकाश के प्रदेशों को भरकर अवस्थित रहते हैं, ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उस अवस्था में केवली के जीवप्रदेशों का स्वभाव से ही वातवलय के भीतर संचार नहीं होता। इसी को प्रतरसंज्ञा और रुचक संज्ञा पागम में कड़ि के बल से जाननी चाहिये । परन्तु इस अवस्था में केवली जिन कार्माकाययोगी और अनाहारक हो जाता है, क्योंकि उस अवस्था में मूल शरीर के आलम्बन से उत्पन्न हुए जीवप्रदेशों का परिस्पन्द सम्भव नहीं है तथा उस अवस्था में शरीर के योग्य नोकर्म पुद्गलपिण्ड का ग्रहण नहीं होता । तब इसी अवस्था में स्थिति और अनुभाग का पहले के समान घात करता है, इस बात का कथन करने के लिये उत्तरसूत्र अवतीर्ण हुअा है
स्थिति और अनुभाग की उसी प्रकार निर्जरा करता है।'
स्थिति के असंख्यातबहुभाग का और अप्रशस्त प्रकृतियों के अनन्त बहुभाग का पहले के समान बात करता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहाँ पर प्रदेशज की भी उसी प्रकार निर्जरा करता है, यह याक्य शेष करना चाहिए, क्योंकि प्रावजितकरण से लेकर स्वस्थान केवली की गुणगिनिर्जरा से प्रसंख्यातगुणी गुणवेशिनिर्जरा की अवस्थित निक्षेपरूप पायाम के साथ प्रवृत्ति की सिद्धि में बाधा नहीं उपलब्ध होती । इस प्रकार यह केवलिस मुम्घात के भेद का कथन किया। अब चौथे समय में लोकपूरणसंजक समुद्घात को अपने सम्पूर्ण प्रदेशों द्वारा समस्त लोक को पूरा करके प्रवृत्त करता है, इसका ज्ञान कराने के लिये आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं
तत्पश्चात् चौथे समय में लोक को पूरा करता है।
बातवलय से रुके हुए लोकाकाश के प्रदेशों में भी जीव के प्रदेशों के चारों ओर से निरन्तर प्रविष्ट होने पर लोकपूरण संज्ञक चौधे केवलिसमुद्घात को यह केवली जिन उस अवस्था में प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। यहाँ पर भी कार्मणकाययोग के साथ यह अनाहारक ही होता है, क्योंकि उस अवस्था में शरीर की रचना के लिये प्रौदारिक शरीर नोकर्मप्रदेशों के आगमन का निरोध देखा जाता है । इस प्रकार लोक को पूरा करके चौथो अवस्था में कार्मणकाययोग के साथ विद्यमान केवली जिन के उस अवस्था में समस्त जोत्र प्रदेणों के समान योग का प्रतिपादन करने के लिये आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते है__ लोकपूरण समुद्घात में योग को एक वर्गणा होती है, इसलिए यहाँ समयोग ऐसा जानना
१ जयधवल मूग पू. २२८८ ।