Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पाबा ३-६४
गुणस्थान/८७
___ इस प्रकार पूर्वोक्त गाथा में कहे गये अभिप्राय को तो किन्हीं जीवों के समुद्घात होने में और किन्हीं जीवों के समुद्घात के नहीं होने में कारण कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि, संपूर्ण जीवों में समान अनिवृत्तिरूप परिणामों के द्वारा कर्मस्थितियों का बात पाया जाता है, अतः उनका प्रायु के समान होने में विरोध पाता है। दूसरे, क्षीणकपाय गुणस्थान के चरम समय में तीन अघातिया कर्मों का जघन्य स्थितिसत्त्व पल्योपम के संज्यात भाग जीयों के पास जाता है। इसलिये भी पूर्वोक्त अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता है। है शङ्का--पागम तो तर्क का विषय नहीं है, इसलिए इस प्रकार तर्क के बल से पूर्वोक्त गाथाओं
अभिप्राय का खण्डन करना उचित नहीं है ? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि, इन दोनों गाथाओं का प्रागमरूप से निर्णय नहीं हुआ है । अथवा, अदि इन दोनों गाथाओं का आगमरूप से निर्णय हो जाने पर इनका ही ग्रहण रहा पावे । ' सयोगकेवनी भगवान सर्वप्रथम प्रथम समय में दण्डसमुद्घात करते हैं । शङ्का --- बह दगइसमुद्घात क्या लक्षणवाला है ?
समाधान--कहते हैं, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रायुकर्म के शेष रहने पर केवली जिन समुद्घात करते हुए पूर्वाभिमुख होकर या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग से करते हैं या पल्यंकासन से करते हैं । वहाँ कायोत्सर्ग से दण्डसमुदघात को करने वाले केवली के मूल शरीर की परिधिप्रमाग कुछ कम चौदह राज लम्बे दण्डाकाररूप से जीवप्रदेशों का फैलना दण्डसमुद्घात है । यहाँ कुछ कम का प्रमाण लोक के नीचे और ऊपर लोकपर्यन्त बातबलय से रोका गया क्षेत्र होता है ऐमा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि स्वभाव से हो उस अवस्था में वातवलय के भीतर केवनी जिन के जीवप्रदेशों का प्रवेश नहीं होता। इसी प्रकार पत्यकासन से समुद्घात करने वाले केवनी जिन के दण्डसमुद्घात कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मुल शरीर की परिधि से उस अवस्था में दण्ड समुद्घात की परिधि तिगुगगी हो जानी है। यहां कारग का कथन मुगम है । इस प्रकार की अवस्थांविशेष का नाम दण्डसमुद्घात कहा जाता । है, क्योंकि सार्थक संज्ञा के ज्ञानवश यथोक्तविधि से दण्डाकाररूप से जीव के प्रदेशों का फैलना दण्डसमूदद्यात है परन्तु इस दण्ड-समुद्घात में विद्यमान केवली जिन के औदारिककाय-योग ही होता है, क्योंकि उम अवस्था में शेष योगों का अभाव है। अब इस दण्डस मुदघात में विद्यमान केवली जिन के बारा किये जाने वाले कार्यों के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
केयलो जिन दण्डसमुद्यात में (आयु कर्म को छोड़कर) शेष अघातिकर्मों के प्रसंख्यात बहुभाग का हनन करते हैं।'
उस दण्डसमुद्घात में विद्यमान केवली जिन अायुकर्म को छोड़कर तीन अघातिकमों की पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण तत्काल उपलभ्यमान स्थितिमत्कर्म के असंख्यात बहभाग का धात करके असंख्यातवे भागप्रभागा स्थिति को स्थापित करते हैं, यह उक्त वाथन का तात्पर्य है।
१. जयघबल मल पृ. २२७८४६ । 1 २. यह कषायपाहून मूत्र का एक सूय है जिसकी मागे जयधवला टोका भी लिखी गई है। इसी तरह गाथा ६४
की शेष सम्पूर्ण टीका कपायपाहुड और उसकी जयधवला टीका ज्यों की त्यों अनूदित करते हुए ही लिखी गई है।