Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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८ / गो. सा. जीवा
गाथा ६३-६४
াङ्कা- -- इस प्रकार एक समय द्वारा ही इस प्रकार का स्थितिघात कैसे हो गया ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्यों केबलिसमुद्घात की प्रधानता से उसकी उपपत्ति होने में कोई बाधा उपलब्ध नहीं होती ।
अब यहीं पर अनुभाग घात का माहात्म्य दिखलाने के लिए इस सूत्र को कहते हैं
तथा शेष अनुभागसम्बन्धी प्रशस्त अनुभागों के अनन्त बहुभागों का घात करते हैं ।
उक्त क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थान के द्विचरम समय में घात करके जो अनुभाग शेष रहा उसके अनन्त बहुभाग का घात कर अनन्तवें भाग में अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग सत्कर्म को स्थापित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । प्रशस्त प्रकृतियों का यहाँ पर स्थितिघात हो होता है, अनुभागघात नहीं होता ऐसा ग्रहण करना चाहिए । गुणश्रेणिनिर्जरा का जिस प्रकार आवजितकरण में प्ररूपण किया है उसी प्रकार यहाँ पर भी प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार केवली जिन दण्डसमुद्घात करके उसके बाद श्रनन्तर समय समुद्घात से परिणमन करने वाले के स्वरूपविशेष का निर्धारण करने के लिए उत्तर सूत्र का अवतार होता है
कपाट
उसके बाद दूसरे समय में केवली जिन कपाटसमुद्घात करते हैं।
जो कपाट के समान हो वह कपाट है ।
शङ्का – उपमार्थ क्या है ?
समाधान - जैसे कपाट मोटाई की अपेक्षा अल्प ही होकर चौड़ाई और लम्बाई की अपेक्षा चढ़ता है उसी प्रकार यह भी मूल शरीर के बाहुल्य की अपेक्षा अथवा उसके तिगुणे बाहल्य की अपेक्षा जीवप्रदेशों के प्रवस्थाविशेषरूप होकर कुछ कम चौदह राजुप्रमाण यायाम की अपेक्षा तथा सात राजुप्रमाण विस्तार की अपेक्षा वृद्धि हानिगत विस्तार की अपेक्षा वृद्धि को प्राप्त होकर स्थित रहता है वह कपाटसमुद्घान कहा जाता है, क्योंकि इस समुद्घात में स्पष्टरूप से ही कपाट का संस्थान उपलब्ध होता है |
इस समुद्घात में पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुख केवलियों के कपाट क्षेत्र के विष्कम्भ के भेद का अवधारण कर पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुखकेवलियों का अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है । परन्तु इस अवस्थाविशेष में विद्यमान केवली के श्रदारिक मिश्र काययोग होता है, क्योंकि उनके कारण और श्रदारिक इन दो शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों के परिस्पन्दरूप पर्याय की उपलब्धि होती है। अब इस अवस्थाविशेष में विद्यमान जीव के द्वारा किये जाने वाले कार्यभेद को दिखलाने के लिए आगे के सूत्र का प्रारम्भ करते हैं
कपाट समुद्घात के काल में शेष रही स्थिति के असंख्यात बहुभाग का हनन करता है । प्रशस्त प्रकृतियों के शेष रहे अनुभाग के अनन्तबहुभाग का हनन करता है ।'
१. जयधवल मूल पृ. २२७६ ।