Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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५४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ६३-६४
हुए बिना केवलीसमुद्घात किया का अभिमुखीभाव नहीं बन सकता। उसी काल में ही नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म के प्रदेशपिण्ड का अपकर्षण करके उदय में थोड़े प्रदेशज को देता है। अनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशज को देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेरिणरूप से निक्षेप करता हना शेष रहे सयोगी के काल से और अयोगी के काल से विशेष रूप से अवस्थित गुणश्रेगिशीर्ष के प्राप्त होने तक जाता है। परन्तु यह गुरणश्रेरिणशीर्ष उसके अनन्तर अधस्तन समय में वर्तमान रहते हुए स्वस्थान सयोगिकेवली द्वारा निक्षिप्त किये गये गुणश्रेरिणायाम से संख्यातगुरगहीन स्थान जाकर अवस्थित है, ऐसा जानना चाहिए। परन्तु प्रदेशज की अपेक्षा उससे यह असंख्यातगुणे प्रदेशविन्यास से उपलक्षित होता है ऐसा कहना चाहिए ।
शङ्का यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान–ग्रह ग्यारह गुणधेशियों के स्वरूप का निरूपा करने वाले गाथा सूत्र से जाना ।। जाता है।
उस गुणश्रेरिणशीर्ष से उपरिम अनन्तर स्थिति में भी असंख्यातगुरणे प्रदेशज को ही सींचता है। उसके बाद ऊपर सनविशेषहीन प्रदेशपुंज की ही निक्षिप्त करता है। इस प्रकार आजितकरणकाल के भीतर सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिए । यहाँ पर दृश्यमान प्ररूपणा जानकर ले । जाना चाहिए।
शङ्का--आवजित क्रिया के अभिमुख हुए सयोगी कोवली के यह गुणधेरिणनिक्षेप स्वस्थान । सयोगी केवली के समान अवस्थित पायाम वाला होता है या गलितशेष आयाम वाला होता है ?
समाधान-निक्षेप रूप करने की क्रिया में यह अवस्थित प्रायामबाला होता है. ऐसा निश्चय करना चाहिए।
इससे आगे सयोगी केवली के द्विचरम स्थितिकाण्ड की अन्तिम फालि के प्राप्त होने तक इस विषय में अवस्थित रूप से इस गुणगि निक्षेप सम्बन्धी प्रआयाम को प्रकृति का नियम देखा जाता है।
और यह प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि यह सूत्र से अविरुद्ध परम गुरुत्रों के सम्प्रदाय के बल से सुनिश्चित होता है।
शा--स्वस्थानकेवली के या आजित क्रिया के अभिमुख हए केवली के अवस्थित एक रूप परिणाम के रहते हुए इस स्थान में गुणणिनिक्षेप का इस प्रकार विसदृशपना कैसे हो गया है, इसका क्या कारण है ?
समाधान-यहाँ पर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि बीतराग परिणामों में भेद का अभाव होने पर भी वे अन्तरंग परिणामविशेष अन्तम हुर्तप्रमारण प्रायु की अपेक्षा सहित होते हैं और । प्रावर्जितकरण रूप भिन्न क्रिया के साधनभाव से प्रवृत्त होते हैं. इसलिये यहाँ पर गुणभेरिणनिक्षेप के विसदृश होने में प्रतिबन्ध का अभाव है ।
इम प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल तक प्राजिलकरणविषयक ध्यापार विशेष का !
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१. जयधवल मूल पृ. २२७८ ।